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सद्धर्ममण्डनम् ।
का नाम लेकर श्रावकको शास्त्र पढ़नेका अनधिकार बताना मिथ्या है। उक्त पाठमें गुरु से पढ़े विना शास्त्रका अध्ययन करनेसे प्रायश्चित्त कहा है इसलिये जो गुरुसे पढ़ कर शास्त्रका अध्ययन करता है उसके अध्ययनका अनुमोदन करनेसे प्रायश्चित्त नहीं हो सकता अतः श्रावक को शास्त्र पढ़ने का अनधिकार बताना मिथ्या समझना चाहिये।
[बोल ५ वां ]
(प्रेरक) ___ भ्रमविध्वंसनकार ठाणाङ्ग ठाणा ३ उद्देशा ४ के मूलपाठको लिख कर उसको समालोचना करते हुए लिखते हैं
"इहां कह्यो ए तीन वांचणी देवायोग्य नहीं अविनीत, विधेना लोलुपी, खमावोवळी २ उदेरे, एतीन साधुने वाचणी पिण देणी नहीं तो गृहस्थ तो क्रोधी मानी पिण हुवे अविनीत पिण हुवे विधेनो गृध्र स्त्री आदिकनो गृध्र पिण हुवे ते मांटे श्रावकने वाचणी देणी नहीं" (भ्र० पृ० ३६५ ) ।
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
ठाणाङ्ग ठाणा ३ का नाम लेकर सभी श्रावकको अविनीत, लोलुप और क्रोधी आदि ठहरा कर शास्त्र पढ़ने का अनधिकारी कहना मर्खता है। जैसे साधुओंमें कोई कोई अविनीत लोलुप और क्रोधी होता है उसी तरह श्रावकोंमें भी कोई कोई अविनीत, लोलप और क्रोधी होता है। ऐसे साधु और श्रावकको ठाणाङ्ग ठाणा तीन में शास्त्र पढ़ाने का निपेध किया है परन्तु जो श्रावक अविनीत लोलुप और क्रोधी नहीं है उसको शास्त्र पढ़ानेका निषेध नहीं है। अत: ठाणाङ्ग ठाणा ३ का नाम लेकर श्रावकको शास्त्र पढ़ने का निषेध करना अज्ञान है। (प्रेरक)
। भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३३६ पर उवाई और सुयगडांग सुत्रका मूल पाठ लिखकर उनको समालोचना करते हुए लिखते हैं -
"अथ इहां कह्यो अर्थ लाधा छै अर्थ प्रह्या छै अर्थ पूछा छै अर्थ जाण्या छै । इहाँ श्रावकाने अर्थाराज्ञाता कह्या पिण इम न कह्यो “लद्धसुत्ता" जे लाधा भण्या छै सूत्र इम न कहो ते मांटे सिद्धान्त भगवानी आज्ञा साधुने इज छै पिण श्रावकने नहीं" इसका क्या उत्तर ?
(भ्र० पृ० ३३६)
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