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इसका क्या समाधान ?
( प्ररूपक )
सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र की दूसरी ओर तीसरी गाथाओं में अभाजनको शास्त्र पढ़ानेका निषेध किया है परन्तु वहां यह नहीं कहा है कि श्रावक अभाजन होता है इसलिये उसे नहीं पढ़ाना चाहिये । अतः सूय्यै प्रज्ञप्ति सूत्रकी गाथाओंका नाम लेकर श्रावकको शास्त्र पढ़नेका अनधिकारी बताना मिथ्या है। सूर्य्यप्रज्ञप्ति सूत्र में अभाजनको शास्त्र पढ़ानेका निषेध किया है परन्तु श्रावक अभाजन नहीं है क्योंकि वह चतुर्विध तीर्थमें गिना गया है और शास्त्रकारोंने श्रावकको गुण रूपो रत्नका पात्र कहा है इस लिये श्रावक भाजन है अभाजन नहीं है। जैसे कोई कोई साधु शास्त्र में अभाजन कहे गए हैं उसी तरह कोई कोई श्रावक भी अयोग्य होते हैं ऐसे अयोग्य साधु और श्रावकोंको शास्त्र पढ़ाने का निषेध है परन्तु सभी श्रावकों को अयोग्य कायम करके उन्हें शास्त्र पढ़ाने का निषेध करना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये ।
पाठ यह है
सद्धर्ममण्डनम् ।
ठागाङ्ग ठाणा दूसरे में श्रुत और चारित्र धर्मका दो भेद बताकर श्रावकको श्रुत धम वाला और देश चारित्री बतलाया है तथा साधुको श्रुतवान और सम्पूर्ण चारित्री कहा है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि श्रावकको भी शास्त्र पढ़ने का अधिकार है क्योंकि शास्त्र पढ़े बिना श्रावक श्रुत धर्मवाला कैसे हो सकता है ?
ठाणा में श्रुत और चारित्रको लेकर एक चौभंगी कही गई है। वह
:–―
"सुय सम्पन्ने नाम मेगे नो चरित्तसम्पन्ने”
(१) कोई पुरुष श्रुत सम्पन्न होते हैं चारित्र सम्पन्न नहीं होते ।
(२) कोई चारित्र सम्पन्न होते हैं श्रुत सम्पन्न नहीं होते ।
(३) कोई चारित्र और श्रुत उपय सम्पन्न होते हैं ।
(४) कोई न श्रुत सम्पन्न होते हैं और न चारित्र सम्पन्न होते हैं ।
यहां चारित्र रहित पुरुषको श्रुत सम्पन्न कहा है । यदि साधुसे इतरको शास्त्र
पढ़ने का अधिकार ही नहीं है तो चारित्र रहित पुरुष श्रुत सम्पन्न कैसे हो सकता है ? अतः साधुसे इतरको भी शास्त्र पढ़नेका अधिकार है ।
भगवती शतक ८ उद्देशा १० में यह पाठ आया है :--- "सुयसम्पन्ने नाम मेगे नो सोल सम्पन्ने"
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