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( अथ क्रियाधिकारः)
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३७४ पर आज्ञा वाहरकी करनी से पुण्य होनेका खण्डन करते हुए लिखते हैं:
"केतला एक अजाण आज्ञा वाहरली करणीथी पुण्य वंधतो कहे ते सूत्रना जाणणहार नहीं" (भ्र० पृ. ३७४)
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
आज्ञा बाहरकी करनीसे पुण्यवंध नहीं मानना शास्त्र न जाननेका फल है क्यों कि जो, जैन धर्मके निन्दक और मिथ्यादर्शनमें श्रद्धा रखने वाले अपने शास्त्रके अनुसार अकाम निर्जरा आदिकी करनी करते हैं उनकी करनी जिन आज्ञामें नहीं है तथापि वे अपनी उस आज्ञा वाहरकी करनीसे पुण्य बांध कर स्वर्गमें जाते हैं। यदि आज्ञा बाहर की करनीसे पुण्यवंध नहीं होता तो उक्त पुरुष स्वर्गमें कैसे जाते ? अतः आज्ञा बाहर की करनीसे पुण्यवंध नहीं मानना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये ।
(बोल १ समाप्त) (प्रेरक)
जैन धर्ममें श्रद्धा नहीं रखने वाले मिथ्या दर्शनियोंकी अकाम निर्जरादि क्रियाको भ्रमविध्वंसनकार जिन आज्ञामें बतलाते हैं और उसे आज्ञामें बतला कर आज्ञा बाहरकी क्रियासे पुण्यवन्ध होनेका निषेध करते हैं।
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
वीतराग भाषित धर्म में श्रद्धा नहीं रख कर मिथ्यादर्शन आदिमें श्रद्धा रखनेवाले जो अज्ञानी अकाम निर्जरा आदिकी करनी करते हैं उनकी करनी यदि जिन आज्ञामें है तो फिर वे मिथ्यादृष्टि कैसे हो सकते हैं ? क्योंकि जिन आज्ञाका आराधक पुरुष मिथ्यादृष्टि नहीं होता अत: अकाम निर्जरा आदिकी करनी करने वाले को मिथ्यादृष्टि मानना और उसकी करनीको जिनआज्ञामें बताना परस्पर विरुद्ध और एकांत मिथ्या है।
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