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अथ क्रियाधिकारः।
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[बोल २ समाप्त]
(प्रेरक) ___ जो जीव वीतरागकी आज्ञाका माराधक नहीं है वह आज्ञा बाहरकी क्रिया कर के स्वर्ग प्राप्त करता है यह कहां लिखा है ? (प्ररूपक)
उवाई सूत्र के मूल पाठमें स्पष्ट लिखा है कि जो जीव वीतराग की आज्ञा का आराधक नहीं है वह भी आज्ञा बाहर की क्रिया करके स्वर्गगामी होता है वह पाठ यह है:___"सेजे इमे गामागर जाव सन्निवेसेसु पन्चया समणा भवंति तंजही आयरियपडिणीया उवज्झायपडिणोया कुलपंडिणीया गण पहिणीया आयरियउवज्झायाणं अजसकारगा अवण्णकारमा अकीत्तिकारगा असम्भावुभावणाहिमिच्छत्ताभिणिवेसेहिय अप्पाणंच परंच तदुभयंच बुग्गाहे माणा बुप्पाए माणा विहरित्ता बहुई वासाई समण्णपरियागं पाउणति तस्स ठाणस्स मणालोइय अपडिकता काल मासे कालं किच्चा उकोसेणं लंतए कप्पे देवकिब्णिएसु देवकिन्विसियत्ताए उवक्त्तारो भवंति तहिं तेसिं गती तेरससागरो बमाई ठीति अणाराहगा सेसं तंव"
(उवाई सुत्र) अर्थ :
आचार्या, उपाध्याय, कुल और गणके साथ वैरभाव रखने वाले और उनकी अवज्ञा, भकीर्ति, तथा अयशका प्रचार करने वाले कई नामधारी प्रव्रजित ग्राम आदि यावत् संनिवेशों में रहते हैं वे मिथ्यात्वके अभिनिवेश और असनावकी भावनासे अपने आपको और दूसरों को भी बुरे आग्रहमें डालते हैं । असद्भावनाका समर्थन करने वाले बहुत काल तक अपनी प्रव्रज्या का पालन करके अपने बुरे कार्याकी आलोचना नहीं लेनेसे पापरहित नहीं होते । वे आयु शेष होने पर मर कर लन्तक नामक देवलोक में उत्पन्न होकर किल्विषी नामक देवता होते हैं। वहां उन की तैंतीस सागर तक स्थिति होती है वे परलोक सम्बन्धी भगवान् की आज्ञा के आराधक
इस पाठमें आचार्या उपाध्याय कुल, गण संघ आदिकी निन्दा करने वाले वीत
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