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जीभेदाधिकारः ।
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का स्पष्ट निषेध किया गया है परन्तु यह बात प्रथम नारकि भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें नहीं घटती क्योंकि कहीं भी शास्त्रमें उनमें असंज्ञीके भेदका निषेध नहीं किया है अतः विविध कुतर्कों का आश्रय लेकर प्रथम नारकि, भुवनपति और व्यन्तर देवमें असंज्ञीके अपर्याप्त नामक भेद को निषेध करना अयुक्त है ।
( बोल ५ वां समाप्त )
( प्रेरक )
भगवती सूत्र शतक १३ उद्देशा २ के मूलपाठमें लिखा है कि "असुर कुमार देवतामें नपुंसक वेद नहीं पाया जाता है" यदि भुवनपतिमें बसंज्ञीका अपर्याप्त भेद होता है तो उसमें नपुंसक वेद भी पाया जाना चाहिये परन्तु यह बात भगवतीके उक्त शतक और उद्दे शके मूलपाठसे विरुद्ध है इस लिये भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें असंज्ञी के अपर्याप्त नामक भेदको मानना अयुक्त है ।
इसका क्या समाधान ?
( प्ररूपक )
प्रथम नारकि, भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें असंज्ञीके अपर्याप्त नामक भेदका शास्त्रमें स्पष्ट उल्लेख किया है इसलिये प्रथम नारकि, भुवनपत्ति और व्यन्तर देवोंमें संज्ञीका अपर्याप्त भेद होता है और असंज्ञीके अपर्याप्त भेदका उनमें सद्भाव होने से नपुंसक वेद भी उनमें पाया जाता है परन्तु वह अवस्था अन्तर्मुहूर्त की होती है इसलिये उसकी विवक्षा करके भगवती सूत्रके मूलपाठमें असुर कुमार देवतामें नपुंसक वेदका निषेध किया है । जैसे भगवती सूत्र शतक ३० उद्देशा पहलेमें सम्यग्दृष्टि द्वीन्द्रिय, त्रीन्त्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवको विशिष्ट सम्यक्त्वके अभावसे क्रियावादी और विनय वादी होने का निषेध किया है सर्वथा सम्यक्त्वके प्रभाव होनेसे नहीं उसी तरह भगवती सूत्रमें भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें विशिष्ट रूपसे असंज्ञीके अपर्याप्त भेदके न होने से नपुंसक वेदका निषेध किया है, सर्वथा असंज्ञीके अपर्याप्त भेदके न होनेसे नहीं अतः प्रथम नारकि, भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें असंज्ञीके अपर्याप्त भेदका निषेध करना अज्ञानमूलक है । इस प्रकरणका सार यह है
असंज्ञीसे मरकर प्रथम नारकि भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें उत्पन्न होने वाले rain असंज्ञीका अपर्याप्त नामक भेद होता है क्योंकि शास्त्रमें जगह जगह उन्हें अशी कहकर ही बतलाया है, कहीं भी संज्ञी नहीं कहा है। यदि उनमें असंज्ञीका भेद मानना शास्त्रकारको इष्ट न होता तो जैसे उत्तानशय (छोटा) बालकको असंज्ञी कह
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