Book Title: Saddharm Mandanam
Author(s): Jawaharlal Maharaj
Publisher: Tansukhdas Fusraj Duggad

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Page 511
________________ अथ जीवभेदाधिकारः। (प्रेरक) • भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३३६ पर लिखते हैं कि “केतला एक अज्ञानी भुवनपति वाण व्यन्तरमें अने प्रथम नरकमें जीवरा तीन भेर कई" इनके कहनेका आशय यह है कि "प्रथम नारकी, भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें जीवके दोही भेद होते हैं। असंज्ञीका अपर्याप्त नामक तीसरा भेद नहीं होता" ___ इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) . प्रथम नारकी, भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें जीवका तीसरा भेद न मानना मूर्खता है क्योंकि शास्त्रके मूलपाठ मौर टीकासे प्रथम नारकी, भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें जीवोंके तीन भेद सिद्ध होते हैं। इस विषयमें पन्नावणा सुत्रमें यह पाठ आया है- "जीवाणं भन्ते ! कि सन्नी कि असन्नी नो सन्नी नो असन्नी ? गोयमा ! जीवा सन्नीवि असन्नीवि नोसन्नी नोअसन्नीवि । नेरइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! नेरइया सन्नीवि असन्नीवि नो नोसन्नो नो असन्नी" (पन्नावणा) अर्थ : है भगवन् ! जीव सजी होते हैं या असंज्ञी होते हैं अथवा संज्ञी असंज्ञी इन दोनोंसे भिन्न होते हैं ? [३०] हे गोतम ! जीव संज्ञी भी होते हैं असंज्ञी भी होते हैं और इन दोनोंसे भिन्न भी होते हैं। [प्र.] हे भगवन् नारकि जीवके विषयमें प्रश्न है ? [उ०] हे गोतम ! नारकि जीव संज्ञी और असंज्ञी दो प्रकारके होते हैं परन्तु इससे भिन्न नहीं होते। इसके आगे चलकर पन्नावणा सूत्रमें व्यन्तर देवोंके विषयमें भी ऐसा ही पाठ आया है और असुर कुमारसे लेकर स्वनित कुमार पर्यन्त भुवनवासी देवताओंके विषय में भी यही बात कही है इस लिये प्रथम नारकि भुवनपति और व्यन्तर देवताओंमें असंज्ञीका भेद होना भी शास्त्रसे सिद्ध होता है तथापि उसे न मानना शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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