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जीवाजीवादि पदार्थ विचारः।
४५९ "जीव उपयोग लक्खणं" नाणंच दसणं चैव चरितंच तवो सहा वोरियं य उवयोगो य एवं जीवस्स लक्खणं" __अर्थात ज्ञान दर्शन चारित्र तप वीा और उपयोग, ये जीवके लक्षण हैं । अतः गुण गुणीके अभेद होनेसे ये भी जीव हैं ।
भाचारांग सुत्रके पांचवें अध्यायमें मूलपाठ आया है कि "जे आया से विन्नाया" अर्थात् जो आत्मा है वही विज्ञान है। इस लिये विज्ञान भी आत्मा है।
भगवती सूत्र शतक १ उद्देशा ९ में महावीर स्वामीके स्थविरोंने कालाश्य-वैशिक मुनिसे कहा है कि "आयाणं अजो सामाइए आयाणं मजो सामाइयस्स अट्ठो” अर्थात् हे आर्यों ! आत्मा ही सामायक है और आत्मा ही सामायकका प्रयोजन है । इसी तरह संयम, प्रत्याख्यान, चारित्र और व्युत्सर्ग ये सब भी आत्मा कहे गये हैं। अतः संवर, निर्जरा और मोक्ष आत्माके निज गुण होनेसे जीव हैं । पाप, पुण्य, आश्रव और वन्ध ये कहीं भी निश्चय नयमें आत्माके निज गुण नहीं कहे हैं किन्तु कर्मके परिणामस्वरूप होनेसे ये दूसरे के गुण हैं। अत: जीव, संवर और मोक्ष तथा निर्जरा ये चार पदार्थ जीव हैं और अजीव, आश्रव, पाप, पुण्य और वन्ध ये पांच अजीव हैं।
[बोल ४ समाप्त ] (किसी अपेक्षासे एक जीव, और एक अजीव और सात इन दोनोंके पर्याय हैं )
पन्नावणा सूत्रके पांचवें पदमें कहा है कि द्रव्य, प्रदेश, पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध, आठ स्पर्श, बारह उपयोग, पुद्गल जनित शरीरका अवगाहन, आयुष्यकी स्थिति, ये ३६ बोल जीवके पर्याय हैं। किसीमें जीवकी और किसीमें अजीवकी प्रधानता होनेसे किसीको जीव और किसीको अजीव कहा है। इन बोलोंमें कई तो संवर निर्जरा और कई मोक्ष स्वरूप हैं और कई पुण्य, पाप, आश्रव और वन्ध स्वरूप हैं अतः जीव और अजीव तत्वको छोड़ कर शेष सात पदार्थ इन दोनोंके ही पाय हैं यह बात सिद्ध होती है।
यहां कई नयोंका आश्रय लेकर संक्षेपसे नव तत्वोंका विचार किया गया है। क्योंकि किसी एक नयका आश्रय लेकर शेष नयों की अवहेलना करना जैन शास्त्रसे विरुद्ध है। अत: किसी नयको मुख्य और किसीको गौण मानकर पदार्थोंका स्वरूप बताना ही जैन धर्मका सिद्धान्त है इस लिये वुद्धिमानोंको पक्षपात छोड़ कर अनेकान्त नयस्वरूप जैन सिद्धान्तानुसार इन पदार्थों का स्वरूप जानना चाहिये। यदि किसी कोमलबुद्धि वाले
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