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मण्डनम् ।
इसका विचार इस प्रकार है:: - उक्त नव तत्त्वोंमें एक तो जीव सिद्ध है वाकी, अजीव तत्वको छोड़कर सब जीव हैं क्योंकि पन्नावगा सूत्रके पांचवें पदमें ३६ बोलों आत्मा कहा है। भगवती शतक १३ उद्देशा ७ में कायको आत्मा, सचेतन और जीव कहा है । आवश्यक सूत्रमें "सचित्त आहारे" यह पाठ देकर आहारको सचित्त कहा है । भगवती शतक २० उद्देशा २ में ११६ बोलोंको जीवात्मा कहा है । वे बोल ये हैं
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अठारह पाप और अठारह पापोंसे विरमण, औत्पातिकी आदि चार बुद्धि, अवग्रहादिक मति ज्ञानके चार भेद, उट्ठाणादिक पांच वीर्य्य नारकी आदि चौबीस दण्डक, ज्ञानावरणादिक माठ कर्म, छः लेश्या, तन दृष्टि, चार दर्शन, पांच ज्ञान, तीन अज्ञान, चार संज्ञा, पांच शरीर, तीन योग, दो उपयोग ये ११६ बोल जीवात्माके परिणाम हैं । इन बोलों में पाप, पुण्य, आश्रव, संवर, बंध, मोक्ष, निर्जरा सभी शामिल हैं इस लिये आठ जीव हैं और एक अजीव है ।
ठाणांग सूत्र के दूसरे ठाणा में कालको जीव और अजीव दो तरहका माना है वहां कहा है कि जीवके साथ सम्बन्ध रखने वाले काल, धूप, छाया, भवन, विमान आदि जीव हैं और अजीवके साथ सम्बन्ध रखने वाले पूर्वोक्त काल आदि अजीव है । संसारी जीव पुण्य, पाप आश्रम, संवर, निर्जरा, वन्ध और मोक्ष ये आठ पदार्थ कर्म और काया को छोड़कर नहीं रहते किन्तु इनके साथ ही रहते हैं । अतः ये आठ पदार्थ जीव, हैं और एक अजीव है ।
[ बोल ३ ]
( किसी अपेक्षासे चार जीव और पांच अजीव हैं )
पुण्य, पाप, आश्रव और बन्ध, जीवके निज गुण नहीं हैं किन्तु कर्मके परिणाम रूप होनसे ये दूसरेके गुण हैं । अतः निश्चय नयमें ये चारों अजीव हैं संवर, निर्जरा और मोक्ष ये आत्मा निज गुण हैं इस लिये गुण गुणीके अभेद न्यायसे निश्चय नयमें हैं । अनुयोगद्वार सूत्रमें लिखा है कि
ये
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"जीवगुणप्पमाणे तिविहे पन्नत्ते तंजहा - नाणगुणप्पमाणे दंसणगुणप्पमाणे चरितगुणप्पमाणे"
. अर्थात्, ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये तीनों आत्माके निजगुण हैं इस लिये गुण गुणी अभेद होने से ये भी जीव हैं । उत्तराध्ययन सूत्रके २८ वें अध्ययनमें जीवका लक्षण बताते हुए लिखा है कि
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