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सद्धर्ममण्डनम् ।
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लिये संवर भी अरूपी है। जवरूपी तालाबमें आने वाले कर्मरूपी जलको रोक देना संवर है और रुके हुए कर्म, रूपी हैं इसलिये संवर रूपी भी है।
निर्जराभी रूपी और अरूपी दो प्रकारकी होती है । आत्माके किसो एक देशसे कर्मो का झड़ जाना और कर्मों के झड़ जानेसे आत्म प्रदेशका निर्मल हो जाना निर्जरा है। वह आत्म प्रदेश अरूपी है इसलिये निर्जग मरूपी है। आत्म प्रदेशसे झड़े हुए कर्म पुद्गल भी निर्जरा कहलाते हैं वे रूपी हैं इसलिये निर्जरा भी रूपी है।
बन्ध भी रूपी और अरूपी दो तरहका होता है । शुभ और अशुभ कर्मों के बन्ध का हेतु जो आत्म परिणाम है वह “बंध" कहलाता है वह आत्म परिणाम अरूपी है इस लिये बंध भी अरूपी है। शुभ शौर अशुभ कर्मकी प्रकृतियोंके वन्धनको भी “बंध" कहते हैं । कर्मकी प्रकृति रूपी है इसलिये बंध भी रूपी है।
मोक्ष भी रूपी और अरूपी दो प्रकारका है । आत्मा का कर्मबन्धन से सर्वथा छुट कर अपने सहज रूपमें स्थित हो जाना मोक्ष है वह आत्माका स्वाभाविक रूप है और आत्मा अरूपी है इसलिये मोक्ष अरूपी है। जो कर्म, आत्मासे पृथक् हो जाते हैं वे भी मुक्त कहे जाते हैं वे कर्म रूपी हैं इसलिये मोक्ष भी रूपी है। इस प्रकार नौही पदार्थ किसी अपेक्षासे रूपी और किसी अपेक्षासे अरूपी हैं।
( बोल १ समाप्त)
(प्ररूपक)
मुख्यनयसे चार पदार्थ रूपी चार अरूपी और एक मिश्र है।
भगवती शतक १२ उद्देशा ५ में, माठ कर्म, अठारह पापस्थानक, दो योग, तैजस और कार्मण शरीर, सूक्ष्म स्कन्ध, इन तीस बोलोंमें पांच वर्ण, पांच रस, दो गंध
और चार स्पर्श बतलाए हैं । घनोदधि धनवात, तनुवात, चार शरीर, वादर स्कन्ध, छ: द्रव्यलेश्या, और काय योग इनमें पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और आठ स्पर्श कहे गये हैं। आठरह पापोंसे विरमण, वारह उपयोग, छ: भाव लेश्या, चार संज्ञाए औत्पत्यादिक बुद्धिके चार भेद, अवग्रहादिक चार मतिज्ञान, उत्थानादिक चार, तीन दृष्टि, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय, और काल इनको वर्ण, गंध, रस और स्पर्श रहित होनेसे अरूपी कहा है। अत: पुण्य, पाप, और बंध ये तीन कम स्वरूप होनेसे रूपी हैं। छः द्रव्यलेश्या, तीन योग, पांच शरीर, हिंसा, मृषावाद, चोरी, मिथुन, परिग्रह ये सब रूपी हैं और आश्रव हैं इसलिये आश्रव भी रूपी है।
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