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सद्धममण्डनम्।
(उत्तर ) ठीक है परंतु औदारिक आदि शरीर नाम कर्मके उदयका बिपाक, मुख्य रूपसे शरीर पुद्गलोंमें ही देखा जाता है इसलिये उससे (शरीर नाम कर्मके उदय से ) उत्पन्न हुए भावको शरीर रूप अजीवमें ही प्रधानतासे दिखलाया गया है इसलिये कोई दोष नहीं।
___इस टीकामें टीकाकारने शरीरको अजीवोदयनिष्पन्न औदयिक भावमें कहने का कारण बतलाते हुए यह स्पष्ट लिखा है कि “यद्यपि शरीर भी जीवोदय निष्पन्न औदयिक भाव कहा जा सकता है तथापि उसमें पुद्गलांशकी मुख्यता होनेसे अजीवोदय निष्पन्न कहा है।"
___ इस टीकाकारकी उक्तिसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि शास्त्रमें जीवांशकी मुख्यताको लेकर जीवोदय निष्पन्न और पुद्गलांशकी मुख्यताको लेकर, अजीवोदय निष्पन्न कहा है परन्तु किसीको एकांत अजीव या एकांत जीव कहनेका तात्पर्य नहीं है। जीवोदय निष्पन्न पदार्थों में जीवांशकी मुख्यता और अजीवोदय निष्पन्नमें पुद्गलांशकी मुख्यता मात्र समझनी चाहिये परन्तु जीवोदय निष्पन्नमें पुद्गलांशका और अजीवोदय निष्पन्न में जीवांशका सर्वथा अभाव नहीं है। इसी प्रधानताको लेकर ही शास्त्रमें उदयभावके जीवोदय निष्पन्न और अजीवोदय निष्पन्न नामक दो भेद किये हैं एकांत जीव या एकांत अजीवको लेकर नहीं अतः जीवोदयनिष्पन्न भावको एकांत जीव और अजीवोदय निष्पन्नको एकांत अजीव बतलाना मिथ्या है।
(बोल १८ वां समाप्त) (प्रेरक)
भ्रम विध्वंसनकार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ ३२० पर अनुयोग द्वार सूत्रके पाठकी समालोचना करते हुए लिखते हैं
__ "अने भाव संयोग जे ज्ञानादिक ना भला भावने संयोगे तथा क्रोधादिक मांठा भावने संयोग नाम ते भाव संयोग कह्या तिहां भाव क्रोधादिकने संयोगे क्रोधी मानो मायी लोभी कह्यो ते मांटे ए ज्ञानादिक भाव कह्या ते जीव छै तिम भाव क्रोधादिक पिण जीव छै । एतला भाव क्रोधादिक ४ कह्या ते जीवरा भाव छै ते कषाय आश्रव छै ते मांटे कषाय आश्रवने जीव कही जे"
(भ्र० पृ० ३२०) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
यद्यपि क्रोध, मान, माया और लोभ भाव रूप कहे गये हैं तथापि ये सिर्फ आत्माके ही धर्म नहीं हैं क्योंकि सिद्धात्माओंमें इनका सर्वथा अभाव है और केवल
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