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आश्रवाधिकारः ।
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यही पाठ साम्परायिकी क्रियाके लिये भी आया है इस पाठमें साम्परायिकी और ऐarat क्रिया को भी सावद्य कहा है अतः निश्चित होता है कि सावध रूपी और जीव भी है उसे एकान्त अरूपी और जीव मानना अज्ञानियोंका काम है ।
( बोल २० समाप्त )
( प्रेरक )
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३२२ पर उवाई सूत्रका मूलपाठ लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं
"अथ इहां अकुशल मनने मांठा मनने रुधवो कह्यो । कुशल मन प्रवर्तावणो को । इमपि वचन कह्यो । अकुशल मनने रूधवो कह्यो ते अजीवने किम रूधे पिण एतोजीव छै ।"
इनके कहने का भाव यह है कि योग प्रतिसंलीनता नामक तपमें आया हुआ योग एकान्स अरूपी और जीव है इस लिये आश्रव एकान्त जीव और अरूपी है।
इसका क्या समाधान ?
(प्ररूपक )
वाई सूत्र के मूलपाठ में मन, वचनका योगके समान कायका योग भी कहा हुआ है परन्तु भ्रमविध्वंसनकारने काय योगके पाठको छोड़कर अधूरा पाठ लिखा है। काय योग प्रत्यक्ष ही रूपी और अजीव है और वह भी योगप्रति संलीनता नामक सपमें कहा हुआ योग में शामिल है इस लिये योग प्रतिसंलीनता नामक तपमें आये हुए योग को एकान्त अरूपी और एकान्त जीव बताना मिथ्या है । उवाई सुत्रका पूर्ण पाठ इस प्रकार है
“से किंतं मणजोगपडि संलीनया ? अकुसलमनणिरोहोवा, कुसल मनउदीरणंवा सेतं मणजोगपडिसंलीनया । सेकितं वयजोगपडिसंलीनया ? असकुलवर्याणिरोहोवा कुसलवयउदीरणंवा सेतं वय जोगपडिसलोनया । सेकितं कायजोगपडिसंलोनया ? जण्णं सुसमाहितपाणिए कुम्भोइव गुत्तिदिए सव्वगायपडिसंलीने चिठ से तं कायजोगपडिसलोनया"
( उवाई सूत्र )
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