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सद्धममण्डनम् ।
(प्ररूपक)
अनुयोग द्वार सूत्रके मूल पाठमें क्रोध, मान, माया और लोभके लाभको अप्रशस्त भावका लाभ कहा है। यहां क्रोधादिको भाव रूप कहा है यह देखकर जीतमलजी इन्हें अरूपी बतलाते हैं परन्तु यह मिथ्या है। पहले वतला दिया गया है कि भाव रूप होनेसे न कोई एकान्त अरूपी होता है और द्रव्य रूप होनेसे न कोई एकान्त अरूपी ही हो जाता है किन्तु अपने कारणके अनुरूप सभी कार्य होते है क्रोध, मान, माया और लोभ कर्मों के उदयसे उत्पन्न होते हैं इस लिये अपने कारणके अनुसार ये रूपी और पौद्गलिक हैं। यदि ये रूपी और पौद्गलिक नहीं हैं तो फिर इन्हें आत्मा का मूलगुण कहना होगा और आत्माका मूलगुण माननेपर सिद्धात्माओंमें भी इनको स्वीकार करना पड़ेगा क्योंकि आत्माके मौलिक गुणोंका कभी भी नाश नहीं होता से ज्ञानादि गुण आत्माके मौलिक गुण हैं अतः वे सिद्ध होनेपर भी आत्मामें मौजूद रहते हैं उसी तरह क्रोध, मान, माया और लोभ भी सिद्धात्मामें मानने होंगे परन्तु यह बात जीतमलजीको भी इष्ट नहीं है अतः कर्मके उदयसे उत्पन्न होने वाले क्रोधादि भाव पौद्गलिक हैं एकान्त अरूपी नहीं हैं यद्यपि ये आत्माके गुण कहे गये हैं तथापि इन्हें पुद्गल संसर्ग विशिष्ट आत्माका गुण समझना चाहिये शुद्ध मात्माका गुण नहीं । तात्पर्य यह है कि क्रोधादि भाव आत्माके मौलिक गुण नहीं किन्तु पुद्गल और आत्मके संसर्ग से उत्पन्न होते हैं इस लिये ये एकान्त जीव और एकान्त अरूपी नहीं हो सकते । ज्ञान दर्शन और चारित्र तो आत्माके मौलिक गुण हैं और ये पुद्गलके संसर्गसे उत्पन्न नहीं होते हैं तथा इनके कारण भी कर्मों का क्षय, उपशम और क्षयोपशम हैं कर्मों का उदय नहीं है इसलिये ज्ञानादि गुण एकान्त मरूपी और जीव हैं इनके दृष्टान्तसे क्रोधादि भावोंको एकान्त अरूपी और जीव बताना अज्ञान है।
इसी तरह सावद्यको एकान्त अरूपी और जीव बताना भी मूरता है। सुयगडांग सूत्रमें १२ प्रकारकी साम्परायिकी क्रिया और १ प्रकारकी ऐ-पथिकी इन १३ क्रियाओं को अजीव कहा गया है और भ्रमविध्वंसनकारने भी भ्र० पृ. ३१० में ठाणांगका मूल पाठ लिखकर इन क्रियाओंको अजीव क्रिया कहा है और ये १३ क्रियाए सावद्य मानी गई हैं इसलिये सावद्यका अजीव होना भी सिद्ध होता है। सुयगडांग सूत्रमें उक्त क्रियाओंको सावध कहा है। वह पाठ यह है
___ "एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ टुवालसमे किरियठाणे लोभवत्तिएत्ति आहिए"
(सुयगडांग)
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