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सद्धमण्डनम् ।
अर्थ:
[ प्रश्न ] मनोयोग प्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ?
[ उत्तर ] अकुशल मनको रोकना और कुशल मनको प्रवृत्त करना, मनोयोग पूतिसंली
ता है।
[ पूश्न ] वचनयोग प्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ?
[ उत्तर ] अकुशल वचनको रोकना और कुशल वचनको प्रवृत्त करना वचनयोगपूर्तिसंलीनता है।
[ पूश्न ] काययोगपतिसंलीनता किसको कहते हैं ?
[ उत्तर ] हाथ पैर आदि अवयवोंको सुसमाहित रखना तथा कच्छपकी तरह अपनी इन्द्रिय और अवयवोंको संकुचित रखना " काययोग पूतिसंलीनता" है ।
यहां अकुशल मन वचन और कायके योगको रोकना तथा कुशल मन वचन और कायके योगको प्रवृत्त करना योगप्रति संलीनता नामक तप कहा गया है परन्तु जीतमलजी लिखते हैं कि "अजीवने किम रू पिण एजीव है” यदि अजीव नहीं रोका जा सकता तो इस पाठमें अकुशल कायके योगका निरोध करना क्यों कहा गया है ? क्योंकि शरीर और उसकी इन्द्रियां तो जीतमलजीके मतमें भी प्रत्यक्ष ही एका न्त अजीव और पौद्गलिक हैं। यदि अजीव होनेपर भी शरीर और इन्द्रियां रोकी जा सकती हैं तो फिर मन और वचन भी अजीव होनेपर क्यों नहीं रोके जा सकते ? अतः इस पाठ में कुशल मन वचनको रोकनेके लिये कथन होनेसे मन और वचन के योगको एकान्त जीव और अरूपी बताना भिथ्या है।
दूसरी बात यह है कि भगवती शतक १३ उद्देशा ७ में वचनको अजीव और रूपी कहा है इसलिये वचनका योग रूपी और अजीव है । वह पाठ यह है
"आयाते ! भासा अण्णा भासा ? गोयमा ! णो आया भासा अण्णा भासा ! रूपी भंते ! भासा अरुपो भासा ? गोयमा ! रूपी भासा णो अरूपी भासा"
अर्थ :
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[ प्रश्न ] हे भगवन् ! भाषा, ( वचन ) आत्मा है या अन्य है ? [ उत्तर ] हे गोतम ! भाषा आत्मा नहीं है, आत्मासे अन्य है
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[ प्रश्न ] हे भगवन् ! भाषा ( वचन ) रूपवती है या अरूपवती है ?
[ उत्तर ] हे गोतम ! भाषा रूपवती है अरूपवती नहीं है । इसी तरह मनके विषय में भी पाठ आया है। वह पाठ यह है-
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