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सद्धर्ममण्डनम् ।
वक्तव्यम् अतएवोक्तमिद्दैव " यदत्थि चणं लोए तंसव्वं दुप्पडोयारं तंजहा - जीवच्चेअ अजीवचचेअ अथोच्यते सत्यमेतत् किन्तु द्वावेव जीवाजीव पदार्थों सामान्येनोक्तौ तावेवेह विशेषतो नवधोक्ताविति”
अर्थ :
:―
ज्ञान और उप
अजीव है । शुभ
प्रकार हैं ( १ ) जीव ( २ ) अजीव ( ३ ) पुण्य ( ४ ) पाप ( ५ ) आश्रव ( ६ ) संवर ( ७ ) निर्जरा ( ८ ) बंध ( ९ ) मोक्ष | सुख दुःख योग लक्षण पदार्थको जीव कहते हैं और उससे भिन्न पदार्थका नाम प्रकृति रूप कर्म 'पुण्य' और अशुभ प्रकृति रूप कर्म पाप कहलाते हैं । शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार कर्मीका ग्रहण जिससे होता है उसे "आश्रव" कहते हैं । गुप्ति आदिके श्रवको रोक देना 'संवर' है । विपाक या तपस्यासे देशसे कर्मों का क्षपण करना निर्जरा है । श्रव द्वारा ग्रहण किये हुए कर्मों का आत्मा के साथ संयोग होना 'बंध' कहलाता है । सब कर्मों के क्षय होनेपर आत्माका अपने स्वरूपमें स्थित हो जाना 'मोक्ष' है ।
( शंका )
उक्त नव ही पदार्थ जीव और अजीव नामक दो ही पदार्थ में शामिल हो जाते हैं। इन्हें अलग कहने की क्या आवश्यकता है ? पाप और पुण्य कर्मस्वरूप हैं और वन्ध भी कर्म स्वरूप ही है कर्म पुद्गलोंका परिणाम है पुद्गल अजीव हैं इसलिये पाप, पुण्य और वन्ध ये तीनों पदार्थ अजीवमें गतार्थ होते हैं । मिथ्या दर्शनादि रूप आश्रव जीवका परिणाम है वह जीव और पुद्गलोंको छोड़कर अन्य क्या हो सकता है ? ( अर्थात् श्रव कोई तो जीवका परिणाम है और कोई पुद्गलका परिणाम है अत: वह जीव और अजीव दोनोंमें ही गतार्थ है ) देश या सर्वसे आश्रवको रोकने वाला निवृत्तिस्वरूप संवर भी जीवका ही परिणाम है। कर्मों का परिशाटन रूप निर्जरा भी जीव स्वरूप ही है क्योंकि जीव ही अपनी शक्ति से कर्मों को अपनेसे पृथक कर देता है । मोक्ष भी जीवस्वरूप ही है क्योंकि समस्त कर्मों से रहित हुआ जीव ही मोक्ष माना जाता है इस प्रकार उक्त नौ ही पदार्थ जीव और अजीव नामक दो ही पदार्थ में शामिल हो जाते हैं । • कहा भी है-छोकमें जो कुछ देखा जाता है वह कोई तो जीव और कोई अजीव है ।
( उत्तर )
यह सत्य है परन्तु सामान्य रूपसे संक्षेपमें बतलाये हुए जीव और अजीव पदार्थों का ही यहां विशेष रूपसे उल्लेख करके उनका प्रपंच समझाया गया है इस लिये यहां जो
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