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आश्रवाधिकारः।
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"आया भन्ते ! मणे अण्णे मणे णो आया मणे अण्णे मणे" अर्थ :--
हे भगवन् ! मन आत्मा है या आत्मासे भिन्न है ? हे गोतम ! मन आत्मा नहीं है किन्तु वह आत्मासे भिन्न है।
उक्त पाठमें मन और वचनको रूपी और आत्मासे भिन्न कहा है इस लिये उनके योग भी रूपी और अजीव हैं इस लिये मन वचन और योगको एकान्त मरूपी
और जीव मान कर आश्रवको एकान्त जीव कहना अज्ञान है। भाव मन और भाव वचनकी कुयुक्ति लगा कर आश्रवको एकान्त जीव और मरूपी बताना भी मिथ्या है क्योंकि मूलपाठमें भाव होनेसे किसीको एकान्त अरूपी और जीव नहीं कहा है और द्रव्य होनेसे किसीको एकान्त रूपी और अर्ज व भी नहीं कहा है अत: शास्त्र विरुद्ध आश्रवको एकान्त अरूपी और जीव मानना मिथ्यात्वका परिणाम समझना चाहिये।
[बोल २१ समाप्त
(प्रेरक)
आश्रवको जीव और अजीव दोनों ही प्रकारका कहीं कहा हो तो उसे उदाहरण सहित बतलाइये ? (प्ररूपक)
ठाणांग सूत्रकी टीकामें आश्रवको जीव और अजीव दोनोंमें ही माना है। वह टीका यह है
___ "नव सब्भावे" त्यादि सभावेन परमार्थेनानुपचारेणेत्यर्थः पदार्थाः वस्तूनि नव सद्भावपदार्थास्तद्यथा जीवाः सुखदुःखज्ञानोपयोगलक्षणाः अजीवास्तद्विपरीताः पुण्यं शुभप्रकृतिरूपं कर्म, पापं तद्विपरीतं कम व । आश्रूयते गृह्यते कर्माऽनेनेत्याश्रवः शुभाशुभ कर्मादान हेतुरिति भावः । संवर आश्रवनिरोधो गुप्त्यादिभिः निर्जरा विपाकात्तपसावा कमणां देशतः क्षपणा वन्ध आश्रवैगत्तस्य कर्मणः आत्मना संयोगः । मोक्षः कृत्स्न कर्मक्षयादात्मनः स्वात्मन्यधिष्ठानम्। ननु जीवाजीव व्यतिरिक्ताः पुण्यादयोनसंति तथा युज्यमानत्वात् तथाहि-पुण्य पापे कर्मणी वन्धोऽपि तदात्मकएव । कर्मच पुद्गल परिणामः पुद्गलाश्चाजीवा इति । माश्रवस्तु मिथ्यादर्शनादिरूपः परिणामो जीवस्य सवात्मानं पुद्गलांश्च विरहय्यकोऽन्यः। संवरोऽपि आश्रवनिरोधलक्षणो देशसर्वभेदादात्मनः परिणामो निवृत्तिरूपः । निर्जर.तु कर्म पग्शिाटोजीवः कर्मणां यत्पार्थक्य मापादयति स्वशक्त्या । मोक्षोऽप्यात्मा समस्त कर्म विरहित इति तस्मान्जीवाजीबो सदभावपदार्थाविन्ति
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