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सद्धर्ममण्डनम् ।
अत्यन्त भेद हो तो शरीरके कर्मका फल आत्माको कदापि नहीं मिल सकता। दूसरोंके कर्मका फल दूसरेको नहीं मिलता । अत: आत्मा शरीरसे कथंचित अभिन्न है ।
यदि आत्माको शरीरके साथ सर्वथा अभेद मान लिया जाय तो शरीरके किसी अवयवका छेद हो जाने पर आत्माके अंशका भी छेद मानना पड़ेगा और आत्माके अंश का छेद मानने पर सम्पूर्ण रूपमें ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती और शरीरके दाह होने पर आत्माका भी दाह मानना पड़ेगा ऐसी दशामें आत्माके परलोक होने का अभाव होगा अतः आत्मा कथंचित शरीरसे भिन्न भी है।
किसी किसी टीकाकारने कार्मण शरीरके साथ आत्माका अभेद मान कर 'आयाविकाए' इसकी व्याख्या की है। उनका आशय यह है कि "ससारी आत्मा और कार्मण शरीर क्षीर नीरकी तरह मिले हुए होनेस अभिन्न मालूम होते हैं- इसलिये यहां आत्माको शरीर स्वरूप कहा है।"
"औदारिकादि शरीरको आत्मा छोड़ देता है इसलिये औदारिकादि शरीर से आत्माको जुदा मान कर “अण्णेविकाए" यह पाठ कहा है।" औदारिकादि स्थूल शरीर रूपी है उसकी अपेक्षासे कायको रूपी कहा है। कार्मण शरीरका रूप अत्यन्त सूक्ष्म है इसलिये उस रूपकी अविवक्षा करके काय को अरूपी भी कहा है। यह उक्त मूलपाठके टीकाका अर्थ है।
यहां मूलपाठ और टीकामें संसारी आत्माको शरीरसे कथंचित अभिन्न माना है अतः संसारी आत्माका रूपी होना भी सिद्ध होता है । जब कि संसारी आत्मा कथंचित् रूपी भी है तब फिर रूपवाले कषाय और योग उसके भेद क्यों नहीं हो सकते हैं ? अत: भाव कषाय और भाव योगको आत्माका भेद मान कर द्रव्य कषाय और मूल्य योगको आत्माका भेद न मानना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये।
अनुयोग द्वार सूत्रमें, कर्मके उदयसे कषाय और योगकी उत्पत्ति कही गई है। कर्मके उदयसे उत्पन्न होने वाले पदार्थ न तो एकान्त जीव हैं और न एकांत अजीव हैं वे कशंचित जीव और कथंचित अजीव दोनों ही तरहके हैं इसलिये कषाय और योगको एकान्त अजीव या एकांत जीव बताना मिथ्या है।
__ शास्त्रकारोंने मिथ्यात्व अव्रत कषाय और योगको कहीं तो जीव, और कहीं अजीव कहा है। जहां जीव कहा है वहां जीवांशकी प्रधानता और जहां अजीव कहा है वह पुद्गलांश की प्रधानता समझनी चाहिये परन्तु एकान्त जीव या एकांत अजीव बताना शास्त्रका आशय नहीं है।
(बोल १७ वां समाप्त)
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