Book Title: Saddharm Mandanam
Author(s): Jawaharlal Maharaj
Publisher: Tansukhdas Fusraj Duggad

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Page 492
________________ ४४२ सद्धर्ममण्डनम् । ( प्रेरक ) भगवती शतक १२ उद्देशा १० में भाव आत्माके आठ भेद कहे हैं द्रव्य आत्मा के नहीं । भाव आत्मा अरूपी है इसलिये कषाय और योग भी भावरूप ही आत्माके भेद हैं, द्रव्य कषाय योग नहीं । भाव रूप कषाय योग अरूपी हैं इसलिये कृषायाश्रव और योगाश्रव भी अरूपी हैं रूपी नहीं । अतः भ्रमविध्वंसनकारने जो भाव रूप कषाय और योगको आत्माका भेद माना है वह ठीक ही मालुम होता है । (प्ररूपक ) भगवती शतक १२ उद्देशा १० में आत्ममात्रके आठ भेद कहे हैं केवल भाव आत्मा ही नहीं । वहां द्रव्य और भावका कुछ जिक्र भी नहीं है इस लिये भगवती सूत्रोक्त आत्माके आठ भेद भाव आत्माके हैं यह कल्पना निर्मूल है। यदि तुम्हारी बात मानकर भगवती सूत्र में भाव आत्मा के ही आठ भेद मान लिये जायं तो योग नामक तीसरा भेद व्यर्थ ठहरता है क्योंकि भाव योगको भीषणजीने वीर्य्य स्वरूप माना है, वह a नामक आठवां भेद अलग कहा गया है उसीमें भाव योग भी शामिल हो जाता है फिर उसे अलग करनेकी क्या आवश्यकता है ? भीषणजीने भाव योगको वीर्य्य स्वरूप माना है वह गाथा यह है "योग वीर्य्य तणो व्यापार तिणस अरूपी छे भाव जीव" विध्वंसन पृष्ठ ३१८ में जीतमलजीने लिखा है -- "अने उत्थान, कर्म, बल, वीर्य्य, पुरुषाकार पराक्रम, फोडवे तेहिज भाव योग छै" भीषणजी और जीतमलजीने भाव योगको वीर्य्य स्वरूप माना है वह वीर्य्य नामक आत्माका भेद जब कि कह दिया गया है तो उससे अलग योग नामक भेद कहने की क्या आवश्यकता है क्योंकि वीर्य्य नामक भेदमें ही भाव योग भी गतार्थ हो जाता है अतः भीषणजी और जीतमलजीका भाव योगको ही आत्माका भेद मानकर द्रव्य योगको आत्माका भेद नहीं मानना नितान्त अज्ञान समझना चाहिये । भगवती शतक १३ उद्देशा ७ में संसारी आत्माका शरीरके साथ कथंचित् अभेद कहा गया है । वह पाठ " आयाते ! काया अण्णे काया ? गोयमा ! आयाविकाए अण्णे विकाएं | रुवी भन्ते ! काए अरूवीकाए ? गोयमा ! रुवीविare अवीविकाए" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ( भग० शतक १३ उ० ७ ) www.umaragyanbhandar.com

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