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आश्रवाधिकारः।
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यद्यपि शास्त्रमें सम्यक्त्व क्रिया और मिथ्यात्व क्रिया जीवकी कही हैं तथापि उनका स्पष्ट अर्थ टीकाकारने यह किया है"सम्यग्दर्शन मिथ्यात्वयोः सतोर्ये भवतस्ते सम्यक्त्व मिथ्यात्व क्रियेति" ।
(ठाणांग ठाणा २ की टीका) "सम्यग्दर्शन और मिथ्या दर्शनके होनेपर जो क्रिया की जाती है वह सम्यक त्व क्रिया और मिथ्यात्व क्रिया है।"
यहां टीकाकारने सम्यग्दर्शन और मिथ्या दर्शनके होनेपर जो क्रिया की जाती है वह क्रिया चाहे जीवकी हो या पुद्गल की हो दोनोंको ही सम्यक्त्व और मिथ्यात्क: की क्रिया कहा है केवल जीवकी ही क्रियाको सम्यक्त्व और मिथ्यात्व क्रिया नहीं कहा है इस लिये केवल जीवकी ही क्रियाको सम्यक्त्व क्रिया और मिथ्यात्व क्रिया कहना मिथ्या है। वास्तवमें ज्ञान और इच्छाको छोड़कर सभी क्रियाएं जीव और पुद्गल दोनों के व्यापारसे होती हैं कोई भी क्रिया अनीवके व्यापारको छोड़कर नहीं हो सकती, अन्तर सिर्फ इतना ही है कि किसी क्रियामें जीवके व्यापारको मुख्यता होती है और किसीमें अजीवके व्यापारकी मुख्यता होती है । साम्परायिकी और ऐUपथिकी क्रिया अजीवके व्यापारकी ही प्रधानता है इस लिये वे दोनों अजीवकी क्रिया कही गई हैं इसी तरह सम्यक्त्व क्रिया और मिथ्यात्व क्रियामें अजीवका व्यापार अवश्य रहता है परन्तु उसकी अपेक्षासे उनमें जीवका व्यापार ही प्रधान होता है इस लिये सम्यक्त्व क्रिया और। मिथ्यात्व क्रिया जीवकी कही गई हैं उनमें सर्वथा अजीवका व्यापार न हो यह बात नहीं है। ज्ञान और इच्छाको छोड़कर सभी क्रियाओंमें जीव और पुद्गल दोनोंके व्यापार होते हैं परन्तु जीवके व्यापारकी सुख्यताको लेकर किसीको जीवकी क्रिया और अजीव के व्यापारकी प्रधानताको लेकर किसीको अजीव क्रिया कहा है परन्तु दोनों ही प्रकार। की क्रियाओंमें जीव और पुद्गल दोनोंके व्यापार होते हैं। आश्रव, क्रिया स्वरूप है और क्रिया जीव और पुद्गल दोनोंकी हैं इस लिये आश्रव जीव और अजीव दोनों ही प्रकारका है उसे एकान्त जीव कहना अज्ञान है।
[बोल ९ समाप्त ]
(प्रेरक)
भ्रम विध्वंसनकार ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा १० के पाठकी साक्षीसे आश्रवको एकान्त जीव बतलाते हैं।
इसका क्या समाधान ?
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