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सद्धमण्डनम् ।
इस टीकासे भी जीवका रूपी होना सिद्ध होता है । यद्यपि निश्चयनयसे निज स्वरूपापन्न जीव रूपी नहीं है किन्तु अरूपी है तथापि इस पाठमें उसका वर्णन न करके संसारी जीवका वर्णन किया गया है संसारी जीव औदारिकादि शरीर के साथ दूध पानी की तरह मिलकर एकाकार हुआ रहता है इस लिये इस पाठमें उसके अनन्त गुरु लघु और अनन्त अगुरु लघु पर्य्यायोंका वर्णन है। कृष्ण लेश्या संसारी जीवका ही परिणाम है और संसारी जीव इस पाठमें रूपी भी कहा गया है इस लिये कृष्ण लेश्या रूपी भी है । कृष्ण लेश्या रूपी है इस लिये उसके लक्षण पांच आश्रव रूपी भी हैं उन्हें एकान्त अरूपी कहना शास्त्र से विरुद्ध समझना चाहिये ।
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उक्त पाठ में संसारी जीवका औदारिकादि शरीर के साथ अभेद होना सिद्ध होता है और औदारिकादि शरीर, पुण्य पाप तथा धकी प्रकृति माना जाता है इस लिये पुण्य पाप और बंघका भी कथंचित् जीव होना सिद्ध होता है । अतः इनको सर्वथा जीवसे भिन्न मानना मिथ्या है ।
कर्मकी प्रकृत्तिको भी शुभाशुभ पुण्य, पाप और बंध कहते हैं और वह कर्मकी प्रकृति, चतुःस्पर्शी पौद्गलिक है इस लिये वह रूपी और जीवसे कथंचित् अभिन्न और कथंचित् भिन्न है उसे जीवसे एकान्त भिन्न मानना मिथ्या है। मिथ्यात्व, कषाय और योगको चतुःस्पर्शी और काययोगको अष्ट स्पर्शी पुद्गल माना है । इस लिये ये सब रूपी और अजीव भी सिद्ध होते हैं एकान्त अरूपी और जीव नहीं अतः यश्रवमात्र को एकान्त अरूपी और एकान्त जीव कहना अज्ञानका परिणाम है। वस्तुतः किसी अपेक्षा से आश्रव, जीव और अरूपी है और किसी अपेक्षासे अजीव और रूपी है परन्तु एकान्त पक्षका आश्रय लेकर इसे एकान्त अरूपी और जीव मानना मिथ्यात्वका परिहै।
( बोल ८ वां समाप्त )
( प्ररूपक )
मिथ्यात्व आवको एकान्त जीव कहना भी भ्रमविध्वंसनकारका दुराग्रह और अपने सिद्धान्त से ही प्रतिकूल है। ठाणांग सूत्रका मूल पाठ लिख कर पहले बतलाया जा चुका है कि ऐपथिकी और साम्परायिकी ये दो क्रियाएं अजीवकी हैं और साम्परामिकी क्रिया के भेद में मिथ्यात्व और अत्रत भी शामिल हैं इस लिये मिथ्यात्व और ती क्रिया अजवकी क्रिया हैं इन्हें एकान्त जीवकी क्रिया मानना शास्त्रसे सर्वथा प्रतिकूल है ।
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