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आश्रवाधिकारः।
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दूसरी बात यह है कि रूपी अरूपी सिद्ध करनेके लिये द्रव्य और भावकी कल्पना करना व्यर्थ है। द्रव्य होनेके कारण कोई वस्तु रूपी नहीं होती और भाव होनेसे अरूपी नहीं हो जाती । द्रव्य होनेसे यदि रूपीकी कल्पना की जाय तो धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और काल द्रव्य भी रूपी मानने पड़ेंगे क्योंकि ये सब द्रव्य हैं। यदि भाव होनेके कारण किसीको अरूपी मान लिया जाय तो वह भी ठीक नहीं है क्योंकि क्रोध, मान, माया, लोभ आदि भाव रूप हैं उन्हें औदायिक भावोंमें गिना गया है, परन्तु वे अष्टस्पी रूपी हैं। तात्पर्य यह है कि कोई कोई द्रव्य भी अरूपी होता है और कोई कोई भाव भी रूपी होता है। ऐसी हालतमें भ्रमविध्वंसनकार जो मरूपी सिद्ध करनेके लिये भाव की कल्पना करते हैं वह सर्वथा असंगत और शास्त्र न जानने का परिणाम समझना चाहिये।
(बोल १३ वां समाप्त) (प्ररूपक)
यहां यह शङ्का होती है कि गति, कषाय और योग चतुःस्पर्शी और अष्टस्पशी पुद गल माने गये हैं पुद गल जीव नहीं किन्तु अजीव हैं फिर गति, कषाय और योग को जीवका परिणाम यहां कैसे कहा है ? तो इसका उत्तर यह है:
गुरु लघु पाय, अष्टस्पी और अगुरु अलघु पर्याय चतुःस्पर्शी पुद गल हैं तथापि जैसे जीवके साथ एकाकार होकर रहनेसे इन्हें भगवती शतक २ उद्देशा १ में जीवका पर्याय कहा है उसी तरह जीवके साथ मिल कर एकाकार होकर रहनेसे गति आदिको ठाणांग ठाणा दशमें जीवका परिणाम कहा है। भगवती शतक २ उद्देशा १ का मूल पाठ यह है:
"भावओणं जीवे अनंता नाण पलवा अनंता दंसण पज्जवा अनंता चारित पज्जवा अनंता गुरु लहु पज्जवा अनंता अगुरु अलहु पजवा"
(भगवती शतक २ उ०१)
अर्थ:
भाष जीवके अनंत ज्ञान पर्याय, अनन्त दर्शन पाय, अनन्त चारित्र पर्याय, अनन्त गुरु लघु पर्याय और अनन्त अगुरु अलघु पर्याय होते हैं।
यहां भाव जीवके अनन्त गुरु लघु पर्याय और अनंत अगुरु अघु पर्याय कहे हैं। गुरु लघु पर्याय और अगुरु अलघु पर्याय क्रमशः अष्ट्रस्पी और चतुःस्पर्शी
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