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सद्धर्ममण्डनम् । "समाधौच गुर्वादीनां कार्यकरण द्वारेण चित्तस्वास्थ्योत्पादनेसति निर्ववर्तितवान्'
अर्थात् गुरु आदिका कार्य करके उनके चित्तमें शान्ति उत्पन्न करनेसे तीर्थंकर गोत्र बंधता है।
यहां गुरु आदिकसे साधु का ही ग्रहण बतलाना अज्ञान है क्योंकि माता पिता ज्येष्ठ वन्धु और चाचा आदि भी गुरु कहलाते हैं। फिर गुरु शब्दसे उनका ग्रहण नहीं होकर एकमात्र साधुका ही ग्रहण क्यों होगा ? इसमें “आदि" शब्द भी आया है। उस आदि शब्दसे गुरुजनसे भिन्न दुसरे लोग यदि नहीं लिये जायेंगे तो फिर आदि शब्द का प्रयोजन ही क्या होगा ? अतः इस टीकामें गुरु शब्दसे साधुके समान ही माता पिता ज्येष्ठ बन्धु आदि गुरु जन भी गृहीत हुए हैं और आदि शब्दसे जो लोग गुरु जनसे भिन्न हैं उनका भी ग्रहण किया गया है। अतः इस टीकाका मनमाना अर्थ करके साधुसे इतरको साता उत्पन्न करनेसे धर्मपुण्यका निषेध करना मिथ्या है। इस टीकासे साधुसे इतरको शान्ति देना भी तीर्थकर गोत्र वन्धका कारण सिद्ध होता है। अतः भ्रमविलसनकारका साधुसे इतरको साता देनेमें पाप कहना अज्ञान है।
इसी तरह गृहस्थका व्यावच करनेको जो अठाईसवां अनाचार कहा है उसका दाखला देकर साधुसे इतरको साता देनेमें पाप कहना भी मिथ्या है। गृहस्थका व्यावच करना साधुके लिये अनाचार कहा है परन्तु गृहस्थके लिये गृहस्थ का व्यावच करना अनाचार नहीं कहा है । अतएव उवाई सूत्रमें माता पिताके श्रुश्रूषक पुत्रको स्वर्गगामी कहा है। यदि साधुसे इतरको शान्ति देना (शवच करना ) गृहस्थके लिये भो अनाचार होता तो माता पिताकी सेवा करनेसे उवाई सूत्र में स्वर्ग जाना कैसे कहा जाता। अत: ज्ञाता सूत्रका नाम लेकर साधुसे इतरको समाधि उत्पन्न करनेसे धर्मपुण्य नहीं मानना उत्सूत्रभाषियोंका कार्य समझना चाहिये ।
[बोल ३ समाप्त]
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २५६ के ऊपर सुयगडांग श्रुत० १ अ०३ उ०४ की छट्ठी और सातवीं गाथाओं को लिख कर उनकी समालोचना करते हुए लिखते हैं
"अथ इहां कयो-साता दियां साता हुवे इम कहे ते आ-मार्ग थी अलगो कह्यो। समाधिमार्ग थी न्यारो कह्यो। जिणधर्मरी होलणारो करणहार, अल्प सुखरे अर्थे घणां सुखारो हारणहार, ए असत्य पक्षे अणछांणवे करी मोक्ष नहीं। लोहवाणियां
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