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सद्धर्ममण्डनम् ।
इस पाठमें श्रावकोंका श्रावकसे विनय किया जाना स्पष्ट कहा गया है इस लिये अपनेसे उत्कृष्ट गुण वाले श्रावकोंका विनय करना श्रावकके लिये निर्जराका हेतु समझना चाहिये।
इसी तरह भगवतीसूत्र शतक १२ उद्देशा १ के मूलपाठमें उपला श्राविकासे पोखलि श्रावकका दर्शन विनय किये जानेका उल्लेख है । वह पाठ यह है
"तएणं साउपला समणोवासिया पोखलिं समणोवासयं एजमाणं पासइ पासइत्ता हट्टतुटा आसणाओ अब्भुट्टइत्ता सत्तकृपयाहिं अणुगच्छइ अणुगच्छइत्ता पोक्खलिं समणोवासयं वंदहणमंसह णमंसइत्ता आसणेणं उवनिमंत्तइत्ता एवं वयासी"
_ (भ० २० १२ उ० १) अर्थ :
___ उत्पला नामक श्राविकाने पोखलि नामक श्रमणोपासकको आते हुए देख कर हृष्टतुष्ट से अपने भासन से उठ कर सात आठ पैर तक उनके सामने जाकर उक्त श्रापकको वन्दना नमस्कार करके आसन पर बैठनेकी प्रार्थना करके इस प्रकार कहा।
इसी तरह पोखली श्रावकने शंख श्रावकको वन्दना नमस्कार किया था। वह पाठ यह है
"तएणं से पोखली समणोवासए जेणेव पोसहसालाए जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छइत्ता गमणा गमणाए पडिकमइत्ता संसां समणोवासयं वन्दइ नमसइत्ता एवं वयासी" .
(भ० श० १२ उ०१) अथ :
इसके अनन्तर पुष्कली श्रावकने पौषध शालामें शंखा श्रावकके पास जाकर इउपथिक प्रतिक्रमण करके शंख श्रावकको वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार कहा।
___इस पाठमें भी पुष्कली श्रावकसे शंख श्रावकके वन्दन नमस्कार करनेका स्पष्ट उल्लेख किया है । यह सब श्रावकके प्रति श्रावकके शुश्रूषा विनयका उदाहरण समझना चाहिये।
[बोल २ समाप्त ]
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