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आश्रवाधिकारः ।
(उत्तर) हे गोतम ! मैं इसे जानता हूं यावत् अनुभव करता हूं यह बात मेरी जानी हुई यावत् अनुभव की हुई है। जो जीव मूर्तिमान् है सरागी है सवेद है और जिसमें मोह, तथा लेश्या विद्यमान है जो शरीर से छुटा हुआ नहीं है उसमें ये बातें अवश्य पाई जाती हैं जैसे कि यह काला है, यह शुक्ल है, इसमें दुर्गन्ध आता है, इसमें सुगन्ध आता है यह तित है, यह मधुर है यह कर्कश है यह सूक्ष्म है इत्यादि । जिसमें पूर्वोक्त बातें पाई जाती हैं वह रूपी ही बना रहता है। कापि अरूपी नहीं हो सकता ।
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यह इस पाठका सरल अर्थ है ।
इस पाठ में भगवान ने सराग, समोह, और सलेश्य जीवको रूपी कहा है इसलिये व्यवहार दशामें सराग जीव भी रूपी है। जब कि सराग जीव भी रूपी है तब फिर पुण्य, पाप और वन्ध, इन रूपी पदार्थों के साथ उसका अभेद व्यवहार होनेमें क्या संदेह है ? जो लोग रूपी होनेके कारण पाप, पुण्य और वन्धको जीवसे एकान्त भेद मानते हैं वे शास्त्र रहस्यको नहीं जानने वाले अज्ञानी हैं ।
इस पाठसे आवके एकान्त अरूपी होनेका सिद्धान्त भी खण्डित हो जाता हैं । इस पाठ में सराग सलेश्य और समोह जीवको रूपी कहा है अतः आश्रव रूपी भी सिद्ध होता है क्योंकि जब जीव भी रूपी है तब जीवस्वरूप आश्रव क्यों नहीं रूपी होगा ? इसलिये जो लोग आश्रवको एकान्त जीव मान कर उसे एकान्त अरूपी बतलाते हैं वे मिथ्यावादी हैं ।
[ बोल ४ समाप्त ]
( प्रेरक )
क्या पाप, पुण्य और वन्ध अजीव नहीं हैं ?
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( प्ररूपक )
पाप, पुण्य और वन्ध व्यवहार दशामें जीव और निश्चय नयके अनुसार अजीव हैं इसलिये इन्हें एकान्त अजीव या एकान्त जीव कहना मिथ्या है किन्तु ये कथंचित् जीव और कथंचित् अजीव हैं यही बात यथार्थ समझनी चाहिये जो इन्हें एकांत अजीव कहता है वह अज्ञानी है ।
( प्रेरक )
भ्रमविकारका यदि व्यवहारनयसे नहीं किन्तु निश्चयनयके अनुसार पाप पुण्य और वन्धको संजीव कहनेका तात्पर्य्य हो तो इसमें क्या आपत्ति है ? (प्ररूपक )
यदि भ्रमविध्वंसन कार का यह तात्पर्य हो कि पाप, पुण्य और वन्ध निश्वय नय के अनुसार अजीव हैं परन्तु व्यवहारनयके अनुसार नहीं तो उनके कथनमें कुछ भी
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