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सद्धममण्डनम् ।
दोष नहीं है किन्तु वह बिलकूल यथार्थ है परन्तु एकान्त रूपसे पाप पुण्य और वन्धको अजीव कहना मिथ्या है। यही बात आश्रवके विषयमें भी है आवको भी यदि भ्रमविध्वंसनकार एकान्त रूपसे जीव और अरूपी न कहें तो कोई भी आपत्ति नहीं है परन्तु वह आश्रवको एकांत अरूपी और जीव कहते हैं यह बात भगवान के कथनसे ही प्रतिफूल है शास्त्रका कथन यह है कि आश्रव न तो एकांत जीव है और न एकांत अजीव ही है किंतु वह जीव और अजीव दोनों ही प्रकारका है। मिथ्यात्व, कषाय, और योग ये, आश्रव माने जाते हैं और मिथ्यात्व कषाय और योगको चतुस्स्पर्शी और काय योग को अष्ट स्पशी पुद्गल माना है अतः आश्रव कदापि एकांत रूपसे जीव नहीं हो सकता क्योंकि मिथ्यात्व, कषाय और योग जीव नहीं हैं। यदि आश्रवको कोई एकांत अजीव कहे तो वह भी ठीक नहीं कहता क्योंकि मिथ्यादृष्टिभी आश्रव माना गया है और मिथ्या दृष्ठि, अरूपी और जीवका परिणाम है इसलिये आश्रव जीव भी सिद्ध होता है अत: आश्रवको एकान्त जीव, या एकान्त अजीव, एकान्त रूपी, या एकान्त अरूपी कहना मिथ्या है।
(बोल ५ वां) (प्रेरक)
__ भ्रमविध्वंसनकारने ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा ५ ३ का मूलपाठ लिख कर आश्रव को एकांत अरूपी जीव सिद्ध किया है ।
__ इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
भ्रमविध्वंसनकारने ठाणाङ्ग ठाणा ५ वे का जो मूलपाठ लिखा है उससे आश्रव एकांत अरूपी और एकांत जीव सिद्ध नहीं हो सकता। वह पाठ लिख कर बतलाया जाता है। ___ "पंच आसव द्वारा पन्नत्ता तंजहा–मिच्छत्तं, अविरतो, पमादो, कसायो, जोगा"
( ठाणाङ्ग ठाणा ५)
अर्थ
___ मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय, और योग ये पांच आश्रव द्वारके भेद हैं ।
इस पाठमें आश्रव द्वारके भेद मात्र का वर्णन है परन्तु आश्रव जीव है या अजीव है यह निर्णय नहीं किया है इसलिये इस पाठका नाम लेकर आश्रव को एकान्त जीव या अरूपी कहना भोले जीवों को धोखा देना है।
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