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आश्रवाधिकारः ।
मान देहधारीका जीव दूसरा है और ये बोल दूसरे हैं। चार प्रकारकी बुद्धि, अवग्रहादिक चार मि ज्ञान, उत्थानादिक वीयों के भेद, नरक आदि चार गति, ज्ञानावरणीयादि आठ कर्म, कृष्णादि छः लेश्याएं, चक्षुर्दर्शनादि चार दर्शन, अभिनिवोधिक आदि पांच ज्ञान, मति आदि तीन अज्ञान आहरादिक चार संज्ञायें, औदार्य्य आदि ५ शरीर, मन आदि तीन योग, सागार और अनागार दो पूकारके उपयोग, इन सब बोलोंमें वर्तमान रनेवाले देहधारीका जीव दूसरा है और ये बोल दूसरे हैं” हे भगवन् ! आप इसे कैसा समझते हैं ?
(उत्तर) है गोतम ! अन्य यूथिकोंका यह कथन मिथ्या है उक्त ९६ बोल और जीवात्मा एक ही है परन्तु एकान्त भिन्न भिन्न नहीं हैं ।
यह भगवती उक्त पाठका अर्थ है ।
यहां भगवानने पूर्वोक्त ९६ बोलोंको जीव कहा है और ९६ वोलों में मनोयोगादि श्रव भी हैं इसलिये आश्रव कथंचित, जीव भी है और पूर्व वर्णन की हुई क्रिया के हिसाब से कथंचित अजीव भी है अतः आश्रवको एकान्त जीव मानना शास्त्रविरुद्ध समझना चाहिये ।
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( बोल २ रा )
( प्रेरक )
भ्रमविध्वंसनकार और उनके गुरू भीषणजीने पुण्य, पाप और वन्धको एकांत रूपी और अजीव, तथा आश्रवको एकान्त अरूपी और जीव कहा है। भीषणजीने aruने तेरह द्वारके छट्ठ े द्वारमें लिखा है कि
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"पुण्यते शुभ कर्म तेहने पुण्य कहीजे तेहने अजीव कहीजे तेहने वन्ध मही जे । पापते अशुभ कर्म तेहने पाप कहीजे अजीव कहीजे बन्ध कहीजे । कर्म प्रते आस्रव कहीजे तेहने जीव कहीजे । जव संघाते कर्म बंधाणा ते वन्ध कहीजे अजीव कहीजे"
इसका क्या समाधान ?
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(प्ररूपक ) ]
पाप पुण्य और वन्धको एकान्त अजीव कहना मिथ्या है क्योंकि ये तीनों ही पदार्थ जीवात्मामें दूध और पानीकी तरह मिल कर एकाकार बने रहते हैं इसलिये व्यवहार दशामें इन्हें जीवका लक्षण माना है और व्यवहार नयसे इन तीनोंको शास्त्रमें जीव कहा है इसलिये पाप, पुण्य, और वन्धको एकान्त अजीव कहना मिथ्या है। दूसरी बात यह है कि पाप, पुण्य और वन्ध रूप कर्म की प्रकृति से ही जीवको चार गति और पांच जाति आदि प्राप्त होती हैं और चार गति पांच जाति और छः कायको भगवती आदि
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