Book Title: Saddharm Mandanam
Author(s): Jawaharlal Maharaj
Publisher: Tansukhdas Fusraj Duggad

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Page 473
________________ आश्रवाधिकारः। ४२३ ___ऊपर कहे हुए मूलपाठमें सब मिल कर २५ क्रियाओंका वर्णन किया गया है उनमें एक ऐUपथिकी है और २४ साम्परायिकी क्रिया है। ये सभी क्रियाए आस्रव हैं और कर्मबन्धके हेतु हैं ये क्रियाएं अजीव की कही हैं अत: आस्रव अजीव भी है। यद्यपि सभी क्रियाएं जीवकी सहायतासे ही होती हैं कोई भी जीवकी सहायताके बिना नहीं हो सकती तथापि इन क्रियाओंमें पुद्गलों के व्यापार की ही प्रधानता रहती है इस लिये ये क्रियाएं अजीव की कही गई हैं। ठाणांग सूत्रको टीकामें टीकाकारने ऐापथिकी और सांपरायिकी क्रियाकी व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट लिखा है कि इन क्रियाओं में पुद्गलों का व्यापार ही मुख्य होता है इस लिये ये क्रियाएं अजीवकी कही गई हैं। वह टीका - "ईरण मी- गमनं तद्विशिष्टः पन्थाः ईर्ष्यापथस्तत्र भवा ऐपिथिकी व्युत्पत्ति मात्र मिदं प्रवृत्ति निमित्तन्तु यत्केवल योग प्रत्यय मुपशान्तमोहादित्रयस्य सात वेदनीयकर्मतया अजीवस्य पुद्गलराशेर्भवनं सा ऐO पथिकी । इह जीव व्यापारेऽपि अजीव प्रधानत्व विवक्षयाऽजीवक्रियेऽपमुक्ता तथा सम्परायाः कषाया स्तेषु भवा साम्परायिकी साह्य जीवस्य पुद्गल राशेः कर्मता परिणति रूपा जीव व्यापारस्याविवक्षणा दजीव क्रियेति साच सूक्ष्मसंपरायान्तानां गुणस्थानकवतां भवतीति" अर्थ : जानेको ईर्ष्या कहते हैं उससे युक्त जो मार्ग है वह ई-पथ कहलाता है उसमें जो क्रिया होती है उसे "ऐापथिको" कहते हैं। यह केवल व्युत्पत्ति मात्र है इसके प्रयोगका विषय अर्थ यह है:-उपशान्त मोह, क्षीण मोह, और सयोगीकेवली, इन तीना गुणस्थानोंमें जो योगोंके कारण पुद्गल राशिका सात वेदनीय कर्मरूपसे परिणाम होता है वह ऐापथिक कहलाता है यह क्रिया भी जीवके व्यापारके बिना नहीं हो सकती तथापि जीवके व्यापार की अपेक्षा इसमें पुद्गल राशिके व्यापारकी प्रधानता होती है इस लिये जीवके व्यापारकी अविवक्षा करके इसे अजीवकी क्रिया ही कहा है। संपराय नाम कषायका है उससे जो क्रिया होती है उसे साम्परायिकी कहते हैं पुद्गल राशिका कर्म रूप से परिणाम होना साम्परायिकी क्रिया है। इसमें भी जीवका व्यापार अवश्य होता है परन्तु अति अल्पताके कारण उसकी अविवक्षा तथा बहुत अधिक होनेसे पुद्गल के व्यापार की विवक्षा करके यह साम्परायिकी क्रिया भी अजीव की ही कही गयी है। यह क्रिया दशम गुण स्थान पर्यन्त रहती है। . यह उक्त टीकाका अर्थ है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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