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सद्धर्ममण्डनम् ।
यहां शास्त्रकार और टोकाकारने ऐापथिकी और साम्परायिकी दोनों ही क्रियाओंको अजीव की क्रिया कहा है इसलिये आश्रवको एकान्त जीव बतलाना मिथ्या है क्योंकि उक्त २५ क्रियाए अजीव आश्रव हैं।
भगवती सूत्र शतक १७ उद्देशा दूसरेमें भगवान महावीर स्वामीने अन्य यूथिकों का मत खण्डन करते हुए प्राणाति पातादि ९६ बोलोंको और जीवको एक होना बतलाया है वह पाठ___ "अण्ण उत्थिआणं भन्ते ! एव माइक्खंति जाव परुति एवं खलु पाणाइवाए मुसावाए जाव मिच्छा दंसण सल्ले वामाणस्स अण्णे जीवे अण्णे जीवा या। पाणाइवाय-वेरमणे जाव परिग्गह वेरमणे कोह विवेगे जाव मिच्छा दंसण सल्ल विवेगे वट्टमाणस्स अण्णे जोवे अण्णे जोवाया । उत्पत्तियाए जाव परिणामियाए वमाणस्स अण्णे जीवे अण्णे जीवाया दुग्गहे ईहा अवाए वट्टमाणस्स जाव जीवाया उट्ठाणे जाव परक्कमे वट्टमाणस्स जाव जीवाया णेरइयत्ते तिरिक्ख मणुस देवत्ते वट्माणस्स जाव जोवाया णाणावरणिज्जे जाव अंतराए वहमाणस्स जोव जीवाया एवं कण्हलेस्सा ए जाव सुक्कलेस्साए समदिष्टि ए ३ एवं चक्खु दंसणे ४ आभिणिवोहियणाणे ५ मइ अण्णाणे आहार सण्णाए ४ एवं आरोलिय सरीरे ५ एवं मण. जोए ३ सगोरो वयोगे अणागारोवयोगे वहमाणस्स अण्णे जीवे अण्णे जोवाया से कह शेयं भन्ते ! एवं गोपमा ! जगणंते अण्ण उ. त्थिया एव माइक्खलि जाव मिच्छंते एव माहंसु अहं पुण गोयमा ! एव माइक्खालि जाव परवेमि एवं पाणाइवाए जाव मिच्छा दंसण सल्ले वहमाणस्त सचेव जीवे सचेव जीवाया जाव अणागारो वयोगे वट्ठमाणस्स सचेव जीवे सचेव जीवाया" ।
(भगवती शतक १७ उद्देशा २) अर्थ :
(प्रश्न ) हे भगवन् ! अन्य यूथिक कहते हैं कि "प्राणातिपात और मृषावादसे लेकर मिथ्यादर्शन शल्य पर्यंत अठारह बोलोंमें वतमान रहने वाले देहधारीका जीव दूसरा है और ये बोल दूसरे हैं तथा प्राणातिपातसे लेकर मिथ्या दर्शन शल्य पर्यंत अठारह पापोंके विरमणमें वर्त
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