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सद्धर्ममण्डनम् ।
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अर्थात हे गोतम ! चिरकाल के अनन्तर भी मनुष्य जन्म मिलना प्राणियोंके लिये
दुर्लभ है।
ठाणाङ्ग सूत्रके तीसरे ठाणेमें भी मनुष्य जन्मको देव बांच्छनीय कहा है। वह पाठ यह है
"ततो ठाणाई देवेपोहेजा। तं. माणुसंभवं, आरिये खेत्ते जम्मं, सुकुलपञ्चायाति"
(ठाणाङ्ग ठाणा ३) अर्थात् देवता भी तीन बातोंकी अभिलाषा करते हैं। मनुष्य योनिमें जन्म पाना, आर्या क्षेत्रमें अम्म पाना, और अच्छे कुलमें जन्म लेना।
यहां मनुष्य जन्मको देव वांच्छनीय कहा है । तथा उत्तराध्ययनके १०वें अध्ययनमें साक्षात भगवान महावीर स्वामीने मनुष्य जन्मको दुर्लभ बतलाया है वह मनुष्य जन्म पुण्यका ही फल है। इस लिये पुण्य फलको एकान्त त्यागने योग्य बतलाना आज्ञान समझना चाहिये।
(बोल ३ समाप्त) (प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २९९ के ऊपर भगवती सूत्र शतक १ उद्देशा ७ के मूलपाठको लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं
इहां नरक जाय ते जीवने अर्थनो राज्यनो भोगनो कामनो कांक्षी श्री तीर्थकरे कलो पिण अर्थ, भोग, राज्य, कामनी वांछा करे ते आज्ञामें नहीं। जिम अर्थ मोग, राज्य, कामनी वांडा करे ते माज्ञामें नहीं। जिम अर्थ भोग राज्य कामनी वांछाने सरावे नहीं तिम पुण्यनी वांछाने स्वर्गनी यांच्छाने पिण सरावे नथीं। पुण्ण कामप साग कामए" ए पाठ कयां मांटे पुण्यनी वांछाने सराई कहे तो तिणरे लेखे स्वर्गनो कामी वाग्छक करो ते पिण स्वर्गनी वाञ्छा सराई कहणी। (भ्र० पू० २९९)
__ इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
भगवती सूत्र शतक १ उद्देशा ७ के मूलपाठका नाम लेकर पुण्यको त्याज्य बतलाना मिथ्या है। वहां के पाठका अभिप्राय, पाठ मौर टीका लिखकर बतलाया जाता है। वह पाठ यह है
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