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पुण्याधिकारः ।
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"तहारूवरस समणस्सवा माहणस्सवा अंतिए एगमपि आरियं घम्मियं सुवयणं सोचाणिसम्म तओ भवइ संवेगजायसड्ढे तिव्वधम्माणुरागरते। सेणं जीवे धम्मकामए पुण्णकामए सग्गकामए मोक्खकामए धम्मकंखिए पुण्णकंखिए सग्गमोक्खकंखिए धम्मपिपासिए पुण्णसग्गमोक्ख पिपासिए तञ्चित् तम्मणे तल्लेस्ते तदझवसिए तत्तिव्वज्झवसाणे तट्टोवउत्ते तदप्पियकरणे तम्भावणाभाविए एयंसिणं अंतरंसिकालं करे. देवलो. उव० सेतेण?णं गोयमा ?"
(भ० श० १ उ०७) (टीका)
श्रमणस्य साधोः वाशब्दो देवलोकोत्पादहेतुत्वं प्रति श्रमणमाहनवचनयो स्तुल्यत्व प्रकाशनार्थः । "माहण" त्ति माहन इत्येव मादिशति स्वयं स्थूल प्राणातिपातादि निवृत्त त्वाद्यः समाहनः । अथवा ब्राह्मणो ब्रह्मचर्य्यस्य देशतः सद्भावात् । ब्राह्मणो देश विरतः तस्यवा अंतिके समीपे एकमप्यास्तां तावदनेकम् आर्याम् आरायातं पापं कर्मइत्या-म् अतएव धार्मिकम् इति । तदनन्तरमेव "संवेगजाय सड्ढिचि संवेगेन भव भयेन जाता श्रद्धा श्रद्धानं धर्मादिषुयस्य स ता । “तीव्व धम्माणुगग रत्ति” चि तीम्रो यो धर्मानुरागो धर्म वहुमान स्तेन रक्तइव यः सतथा। “धम्मकामए” त्ति धर्मः श्रुत चारित्र लक्षणः पुण्यं तत्फल भूतं शुभ कर्म इति" अर्थ:
हे गोतम ! तथा रूपके श्रमण और माहन के पास एक भो आर्य धर्म सम्ब. न्धी सुवचनके सुननेसे जीवको उसके बाद ही भव भय होनेसे धर्ममें श्रद्धा उत्पन्न होती है। और वह तीन धर्मानुगगसे रक्त सा हो जाता है ! तथा वह जीव, धर्मका मी, पुण्य कामी, स्वर्गकामी, मोक्षकामी, धर्मकांक्षी, पुण्य कांक्षी, स्वर्गकांक्षी, मोक्षकांक्षी, धर्म पिपासित, तथा उनमें चित्त, लेश्या, मध्यवसाय, और तीब्र अध्यवसाय (प्रयत्न विशेष) वाला होता है । एवं उक्त धर्मादि अथों में उपयोग रखता हुआ तथा उन्हींमें अपने इन्द्रियोंको अर्पण किया हुआ और उनकी भावनासे भावित (वासित ) होता हुमा यदि उसी काल में मरणको प्राप्त होता है तो वह देवलोकमें उत्पन्न होता है।
यहां तथा रूपके श्रमण और माहनसे आर्या धर्म सम्बन्धी एक भी सुवचन सुननेसे जीवको वैराग्य, धर्मप्रेम तथा धर्म पुण्य स्वर्ग और मोक्षमें कामना मादि होकर स्वर्ग प्राप्त करना बतलाया है । यह बतलाकर तथा रूपके श्रमण माहनसे धार्मिक
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