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सद्धर्ममण्डनम् ।
"चत्तारि परमंगाणि दुल्लभाणीह जन्तुणो' माणुसत्तं सुई सद्धा संजमंमिय वीरियं"
(उत्तरा० अ०३) अर्थ :
चार वस्तु मुक्तिके परम साधन, और जीवोंके लिए दुर्लभ हैं। मनुष्य योनिमें जन्म लेमा, धर्म श्रवण करना, धार्मिक श्रद्धा, और संयमके अन्दर सामर्थ्य विशेष।
यहां मनुष्य जन्मको मोक्ष प्राप्तिका परम साधन कहा है और वह मनुष्य जन्म पुण्य का ही फल है । इस लिये पुण्य फल मोक्षार्थियों को भी साधन दशामें आदरणीय है। अत: जो लोग पुण्य और उसके फलको एकान्त त्यागने योग्य बतलाते हैं उन्हें मिथ्यावादी जानना चाहिये। (प्रेरक)
पुण्य आदरणीय है यह बात कहां कही है(प्ररूपक)
उत्तराध्ययन अध्ययन १३ गाथा २१ में पुण्यको आदरणीय बतलाया है। वह गाथा यह है
__"इह जीविए राय असासयम्मि धणियं तु पुण्णाई अकुञ्चमाणे। से सोयइ मनु महो वणीए धम्म अकाऊण परम्मिलोके"
- (उत्तरा० अ० १३ गाथा २१) अर्थ:
चित्त मुनि कहते हैं कि हे ब्रह्मदत्त ! अशाश्वत अर्थात् अमित्य मनुष्यकी आयु पाकर जो पुरुष अतिशय पुण्यका उपार्जन नहीं करता वह मृत्युमुखमें प्रवेश करके धर्माचरण नहीं करने के कारण परलोकमें पश्चात्ताप करता है।
यहां चित्त मुनिने ब्रह्मदत्तसे मनुष्यकी आयु पाकर पुण्योपार्जन करनेकी आवश्यकता बतलाई है। अत: साधन दशामें मोक्षार्थियों को भी पुण्य आदरणीय सिद्ध होता है।
(बोल २ समाप्त) (प्रेरक)
भ्रम विध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३०० के ऊपर इस गाथाको लिखकर इसको समालोचना करते हुए लिखते हैं
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