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अथ पुण्याधिकारः।
--* ---- (प्ररक)
पुण्य किसे कहते हैं, और उसके कितने भेद हैं । (प्ररूपक)
"पुनाति पवित्री करोत्यात्मान मिति पुण्यम् ।
अर्थात् जो आत्माको पवित्र करता है उसे पुण्य कहते हैं । वह नव प्रकारका कहा । जैसे कि ठाणाङ्ग सुत्रके नवम ठाणामें यह पाठ आया है
"नवविहे पुणे पन्नत्ते तंजहा-अन्न पुण्णे, पाण पुण्णे, वत्थ पुष्णे, लेण पुण्णे, सयण पुण्णे, मण पुण्णे, वय पुण्णे, काय पुण्णे, नमोकार पुण्णे" अर्थः
(ठाडाङ्ग ठाणा सूत्र) पुण्य नौ प्रकारका होता है। जैसे कि
अन्न दान देना, जल दान देना, वस्त्र देना, मकान देना; शव्या आसनादि देना, गुणी पुरुषों में मन को तुष्ट रखना, वचन से प्रशंसा करना, शरीर से उन की सेवा काना, और श्रेष्ठ जनको नमस्कार करना।
इस पाठका अर्थ करते हुए टीकाकार तथा टव्वाकारने लिखा है कि पात्रको अन्नादि दान देनेसे तीर्थकर नाम गोत्रादि विशिष्ठ पुण्य प्रकृति बंधती है और साधुसे इतरको दान देनेसे दूसरी पुण्य प्रकृति बंधती है इसलिये साधु और उससे इतर पुरुषको दान आदि देनेसे उक्त नव प्रकारका पुण्य होना समझना चाहिये ।।
इन पुण्योंके फल ४२ प्रकारके होते हैं। वे भी कार्य और कारण के अमेद से पुण्य ही कहलाते हैं। इस प्रकार पुण्य नाम शुभ करणी का भी है और पुण्यफार्मका भी है। (प्रेरक)
पुण्य आदरने योग्य है अथवा त्यागने योग्य है ? (प्ररूपक)
ठाणाङ्ग सुत्रके प्रथम ठाणेकी टीकामें पुण्यके दो भेद किये हैं। एक पुण्यानुवंधी पुण्य, और दूसरा पापानुवन्धी पुण्य । उनमें पुण्यानुवन्धी पुण्य तो साधन दशामें मादरने योग्य है और पापानुबंधी पुण्य त्यागने योग्य है ।
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