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विनयाधिकारः।
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(प्रेरक)
आपने शास्त्रके प्रमाणसे यह सिद्ध कर दिया कि अपनेसे अधिक गुण वाले श्रावकोंको श्रावक लोग वन्दन नमस्कार आदि करते हैं और वह उनका श्रावकके प्रति शुश्रूषा विनय है अतः वह निजगका हेतु है परन्तु जीतमलो और भीषणजी एक मात्र साधुकेही शुश्रूषा विनयको, निजराक हेतु बतलाते हैं श्रावकके शुश्रूषा विनयको निर्जराका हेतु नहीं मानते । भीषगजीने स्वरचित ढालमें कहा है "दर्शन विनयरा दोय भेद छ । शुश्रूषाने अणअसातना तेहजी । शुश्रूषो तो बड़ा साधुरी करणी त्यांने वन्दना करणी शीश नामजी" (निर्जग प्रकरण भीषणजीकी ढाल) तथा जीतमलजीने भ्रम० के २७३ पृष्ठ पर लिखा है कि "केई पाषण्डी श्रावकरी सावध विनय कियां धर्म कहे छ। विनय मूल धर्मरो नाम लेइ श्रावकरी शुश्रूषा विनय करवो थापे” इत्यादि (भ्र. पृ० २७३)
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) ___ भीषणजीका और जीतमलनीका श्रावकके प्रति श्रावकके शुश्रूषा विनयको सावद्य बताना शास्त्र विरुद्ध और अप्रमाणिक है। हमने इसी पूर्व प्रकरणके बोलमें भगवती सूत्रकी कई साक्षियां देकर श्रावकोंके विनयका प्रमाण बतलाया है। यदि भीषणती और जीतमलजी के सिद्धान्तानुसार श्रावकके प्रति श्रावकका विनय करना सावध होता तो फिर भगवान महावीर स्वामीकी मौजूदगीमें उनके समवसरणमें ही श्रावक लोग ऋषिभद्र पुत्र श्रावकका विनय क्यों करते ? और उसे भगवान् सावध कहकर क्यों नहीं रोकते ? अतः श्रावकके प्रति श्रावकके विनयको सावध कहना मिथ्या समझना चाहिये। (प्रेरक )
भ्रम विध्वंसनकार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ २७६ के अपर लिखते हैं
"सामायक पोषामें सावध रा त्याग छ । ते सामायक पोषामें श्रावक मांहो माही नमस्कार करे नहीं। ते मांटे ये विनय सावध छै। वली पोखलीने उत्पला नमस्कार कियो । ते पिण आवतां कियो । अने पोखली जातां वन्दना नमस्कार न कियो । जे धर्म हेते नमस्कार कीधी हुवे तो जातां पिण करता। वली शंखनो विनय पोखली कियो। ते पिण आवतां कियो पिण पाछा जावता विणय कियो चाल्यो न थी। इण न्याय संसार हेते विणय कियो पिण धर्म हेते न थी। जिम साधुनों विनय करे ते श्रावक आवतां पिण करे अने पाछां जावता पिण करे तिम पोखलीनो विनय उत्पला पाछां जावतां न
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