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सधर्ममण्डनम्।
"अत्थिणं भंते ? पंचिन्दिय तिरिक्ख जोणियाणं सकारेवा जाव पडिसंसाहणया ?
हंता ! अत्थि णो चेवणं आसणा भिग्गहेइवा आसणाणुप्पदाणेइवा । मणुस्साणं जाव वेमाणियाणं जहा असुर कुमाराणं"
(भ० श० १४ उ०३) अर्थाःहे भगवन् तिञ्च पञ्चं न्द्रिय श्रावकोंमें सत्कार आदि शुश्रूषा विनयका सद्भाव होता है ?
हां गोतम ! होता है । आसानानुप्रदान और आसनाभिग्रह को छोड़ कर सभी शुश्रूषा विनय तिर्म्यञ्च पञ्चेन्द्रिय श्रावकोंके भी होते हैं। तथा मनुष्य यावत् वैमानिक देवोंके असुर कुमारकी तरह सभी शुश्रूषा विनय होते हैं।
इस पाठमें मनुष्य श्रावकोंमें सभी विनयोंका सद्भाव कहा है और ति-ब्च पञ्चेन्द्रिय श्रावकोंमें आसनानुपदान और आसनाभिप्रहको छोड़ कर शेष सभी विनय कहे हैं। यिंच पञ्चेन्द्रिय श्रावक अढाई द्वीपसे बाहर भी रहते हैं, जहां साधुओं का गमनागमन नहीं होता फिर वह शुश्रूषा विनय किसका करते हैं यह भ्रमविध्वंसनकार के मतावलम्बियोंसे पूछना चाहिये। लाचार होकर उन्हें यह मानना ही पड़ेगा कि अढाई द्वीपसे बाहर रहने वाले तिय्यैच पञ्चेन्द्रिय श्रावक जो अपनेसे श्रेष्ठ श्रावकका सत्कार सम्मान आदि करते हैं वह उनका शुश्रूषा विनय है। अतः श्रावकके प्रति श्रावकके शुश्रूषा विनयको सावय कायम करना अज्ञान का परिणाम समझना चाहिये।
यदि कोई कहे कि "श्रावकको वन्दना नमस्कार करना सावध नहीं है तो सामायकके अन्दर बैठा हुआ श्रावक किसी श्रावकको बन्दना नमस्कार क्यों नहीं करता।" तो इसका उत्तर यह है कि सामायकके अन्दर बैठा हुआ श्रावक सामायक और पोषा में नहीं बैठे हुए श्रावकसे श्रेष्ठ होता है और श्रेष्ठ अपने से कनिष्ठ को नमस्कार नहीं करता इसलिये सामायक और पोषामें बैठा हुआ श्रावक सामायक और पोषा में नहीं बैठे हुए श्रावकको वन्दन नमस्कार नहीं करता परन्तु वह उसके वन्दन नमस्कार को सावद्य नहीं समझता। जैसे बड़ा साधु छोटे साधुको वन्दन नमस्कार नहीं करता तथा जिन कल्पी साधु स्थविर कल्पीको वन्दना नमस्कार नहीं करता एवं पुरुष साधु स्त्री साध्वीको वन्दना नमस्कार नहीं करता क्योंकि वे उनसे बड़े हैं परन्तु यदि कोई दूसरा
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