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सद्धर्ममण्डनम् ।
कोई मनुष्य धर्मोपदेश करता है वह धर्माचार्य होता है अतएव इस पाठकी टीकामें लिखा है कि
"आचार्या सूत्र चतुर्थ भंगे यो न प्रत्राजनया नचोत्थापनयाचार्यः सकः इत्याह धर्माचा- इति प्रतिवोधक इत्यर्थः आहच धम्मो जेणुवइट्ठो सो धम्म गुरु गिहीव समणोवा कोवि तिहिं संपउत्तो दोहिवि एक्केवागणेव"
अर्थात् आचाय्य सूत्रके चतुर्थभङ्ग में जो न दीक्षा देता है और न छोदोपस्थापन चारित्र ही देता है वह कौन है ? तो इसका उत्तर यह है कि वह धर्मका प्रतिवोध देने वाला पुरुष है। कहा भी है जिसने धर्मका उपदेश दिया है वह चाहे गृहस्थ हो या श्रमण हो वह धर्माचार्य कहलाता है। इनमें कोई तो दीक्षा, छेदोपस्थापन चारित्र और धर्म इन तीनोंके आचार्य होते हैं और कोई दो के आचाय्य होते हैं और कोई एक एक के आचार्य होते हैं।
यहां टीकाकारने उक्त गाथा लिख कर स्पष्ट बतला दिया है कि जो धर्मोपदेश देता है वह चाहे श्रमण हो या गृहस्थ हो धर्माचाय्य कहलाता है अम्वडजीने अपने शिष्योंको वारह व्रत रूप धर्मका उपदेश दिया था फिर वह उनके धर्याचा- क्यों नहीं हो सकते ? अतएव मूलपाठमें अम्वडजीके शिष्योंने अम्बडजीको धर्माचार्या बतला कर उनसे बारह व्रत धारण करने की बात कही है इसलिये यह निःसंदेह सिद्ध होता है कि अम्बडजीके शिष्यों ने उन्हें लोकोत्तर धर्मका आचार्य समझ कर ही नमस्कार किया था सन्यास धर्मका उपदेशक समझ कर नहीं।
बारह ब्रल धारी श्रावक कुप्रवाचनिक धर्माचार्याको राजाभियोगादि छ: कारणों के विना वन्दन नमस्कार नहीं करते जैसे कि शकडाल पुत्र पहले गोशालकका शिष्य था पश्चात् महावीर स्वामीसे बारह व्रत धारण करनेपर उसने गोशालकको वन्दन नमस्कार नहीं किया था क्योंकि ऐसा करनेसे उसके समकितमें अतिचार आता। उसी तरह अम्वडजीके शिष्योंने भी अम्वडजीको कुप्रावचनिक धर्माचार्या समझ कर बन्दन नहीं किया था क्योंकि ऐसा करनेसे उनके समकितमें अतिचार आता किन्तु उन्हें बारह प्रत रूप धर्मका उपदेशक जान कर नमस्कार किया था। अत: अम्वडजीके शिष्यों से अम्वडजीको कुप्रावचनिक धर्माचार्यके सम्बन्धसे नमस्कार करनेकी प्ररूपणा करके अपनेसे अधिक गुणवान् श्रावकको नमस्कार करनेमें पाप बतलाना अज्ञानियोंका कार्य समझना चाहिये।
[बोल ४ समाप्त ]
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