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विनयाधिकारः ।
इसका क्या समाधान ?
( प्रेरक )
पर तीर्थी धर्मोपशक दो होते हैं। एक श्रमण शाक्यादि और दूसरा ब्राह्मण | इस लिये पर तीर्थी धर्मोपदेशक के लिये आये हुए श्रमण और माहन शब्दका भिन्न २ अर्थ होना ठीक ही है परन्तु स्वतीर्थी धर्मोपदेशक एक मात्र साधु ही होते हैं श्रावक नहीं होते । इस लिये स्वतीर्थी धर्मोपदेशकके विषय में जो श्रमण और माहन शब्द आये हैं उनका एक साधु ही अर्थ होना चाहिये परन्तु श्रमण शब्दका अर्थ साधु और माहन का अर्थ श्रावक न होना चाहिये ।
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( प्ररूपक )
परतीर्थी धर्मोपदेशककी तरह स्वतीर्थी धर्मोपदेशक भी दो ही होते हैं । एक साधु और दूसरा श्रावक इस लिये परतीर्थी धर्मोपदेशकके पाठकी तरह स्वतीर्थी धर्मोपदेशकके पाठ में भी श्रमण शब्दका साधु और माहन शब्दका श्रावक, इस प्रकार भिन्न भिन्न अर्थ ही करना चाहिये एक साधु नहीं। यहां कोई यह पूछे कि 'श्रावक भी धर्मोपदेश करता है ऐसा पाठ कहां आया है' तो उसका उत्तर यह है कि सुयगडांग सूत्र श्रुत० २ अध्ययन दूसरे तथा उवाई सूत्रके २० वें प्रश्नमें श्रावकको भी धर्मोपदेशक कहा है । वह पाठ यह है
"अहावरेतचस्प ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एव माहिज्जइइहखलु पाईणंवा ४ संते गतिया मणुस्सा भवंति तंजहाअप्पिच्छा अप्पारंभा अप्प परिग्गहा धम्मिया धम्माणया धम्मिट्ठा धम्मक्खायी धम्मप्पलोइया धम्म पलज्जणा धम्म समुदायारा धम्मेणंचेव वित्तिं कप्पेमाणाविहरंति सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा साहू "
अर्थ:
( सुय० श्रु० २ अ० २ )
तीसरा स्थान मिश्र संज्ञक है उसका विभंग कहा जाता है। इस जगतके अन्दर पूर्वादि दिशाओं में रहने वाले कोई कोई मनुष्य शुभ कर्म करने वाले होते हैं तथा अल्प इच्छा रखने वाले अल्पारंभी, अल्प परिग्रही, धार्मिक, श्रुत और चारित्र धर्मके पीछे चलने वाले भ्रष्ट और चारित्र रूप धर्म जिनको बहुत प्रिय है ) धर्माख्यायी यानी भव्य जीवोंके समक्ष धर्म का प्रतिपादन ( उपदेश ) करने वाले साधुओंके पास धर्मका अन्वेषण करने वाले अथवा धर्मको उपादेय समझने वाले, धर्ममें प्रेम रखने वाले, हर्षके साथ धर्माचरण करने वाले तथा हर्षके साथ जीविका करने वाले, सुन्दर स्वभाष वाले, सुव्रती और आनन्दमें मग्न रहने वाले साधुके सश होते हैं ।
श्रुत
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