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विनयाधिकारः।
श्रावकने टाल दियो । अने श्रमण माहनने वंदना नमस्कार करणो कह्यो ते मांटे श्रावक ने नमस्कार करे ते कार्या माज्ञा वाहिरे छै । (भ्र. पृ० २८७)
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
भगवती सूत्र शतक १५ । के मूलपाठका प्रमाण देकर यह कहना कि "श्रावकसे सीखे, पर उसको वंदना नमस्कार नहीं करे" एकान्त मिथ्या है। उक्त पाठमें साधु और श्रावक इन दोनोंसे सीखना, और दोनोंको ही वंदन नमस्कार करना कहा है श्रावकको नमस्कार करनेका निषेध नहीं किया है। इस पाठमें भगवती शतक २ उद्देशा ५ के पाठके समान ही श्रमण और माहनसे सीखना तथा उनको वंदना नमस्कार करना कहा है । इसलिये यहां भी पूर्ववत ही श्रमण शब्दका साधु और माहन शब्दका श्रावक अर्थ है। भगवतीके इस पाठसे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधु और श्रावक इन दोनों ही से सीखे और दोनों ही को वंदन नमस्कार करे तथा यह बात साधारण मनुष्य भी समझ सकता है कि जब श्रावकसे सीखना मना नहीं है तब फिर उस को वंदन नमस्कार करना मना कैसे हो सकता है ? परन्तु भ्रमविध्वंसनकार जो श्रावकसे सीखने का निषेध न करते हुए भी उसको वंदन नमस्कार करनेका निषेध करते हैं यह एकमात्र इनका हठवाद और जनतामें कृतघ्नताका प्रचार करना है क्योंकि श्रावक से सीख कर उससे अपना कार्य तो करा लेना पर उसको वंदन नमस्कार नहीं करना इससे बढ़ कर कृतघ्नता और क्या हो सकती है ?। अतः श्रावकसे धर्म सीख कर भी उसको वंदन नमस्कार नहीं करनेकी प्ररूपणा एकांत मिथ्या और शास्त्र विरुद्ध है।
यदि कोई कहे कि “इस पाठमें श्रमण माहनका विशेषण "कल्याणं मंगलं देवयं चेइयं" यह आया है। और यह विशेषण श्रावक आदि किसी दूसरे में न आकर एकमात्र साधु और तीर्थंकरों में ही आता है इसलिये यहां माहन शब्दका श्रावक अर्थ नहीं है किन्तु साधु ही है तो यह मिथ्या है। उवाई सूत्रके मूलपाठमें पूर्ण भद्र नामक यक्षके लिये भी "कल्याणं मङ्गलं देवयं चेइयं" ये विशेषण माप है। वह पाठ यह है- .
"बहुजणस्स आहुस्सणिज्जे पाहुणिज्जे अच्चणिज्जे वंदणिज्जे नमसणिज्जे पूमणिज्जे सकारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणे मंगलं देवयं चेइयं विणएण पज्जुवासणिज्जे"
(उवाई सूत्र)
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