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विनयाधिकारः ।
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अर्थ:
इसके अनन्तर बुद्धि प्रधान ने जित शत्रु राजासे केवलिसे कहा हुआ चार महाव्रत arr विचित्र धर्म कहा और इस प्रकार राजाको समझाया जिससे जीव प्रतिषोध प्राप्त करके आराधक बन जाते हैं। तथा पांच अनुव्रत रूप श्रावक धर्मका भी सविस्तर उपदेश किया । इसके अनन्तर जिस शत्रु, राजाने सुबुद्धि प्रधानसे कहा कि हे देवानुप्रिय ! मैं निर्ग्रथ पूर्वचनमें श्रद्धा धारण करता हूं और तुम्हारे उपदेशानुसार श्रावकोंके बारह व्रतोंको तुमसे ग्रहण कर रहना चाहता हूं। यह सुन कर सुबुद्धि पूजानने कहा कि हे देवानुप्रिय ! सुखके साथ यह कार्य्यं करो बिलम्ब करनेकी आवश्यकता नहीं है । तदनन्तर जित शत्रु राजाने सुबुद्धि प्रधानसे बारह प्रकारके श्राचकोंके व्रत ग्रहण किये और वह श्रमणोपासक होकर जीव तथा अजीवको जानकर यावत् साधुओंको दान देता हुआ विचरने लगा ।
यहां सुबुद्धि प्रधानके उपदेशसे जित शत्रु राजाका बारह व्रत धारण करना स्पष्ट रूपसे कहा गया है । यह श्रावकों के धर्मोपदेशक होनेका मूल सूत्रोक्त उदाहरण है । इस लिये स्वतीर्थी धर्मोपदेशक भी साधु और श्रावक दोनों ही होते हैं तथापि भ्रमविध्वंसन कार जो स्वतीर्थी धर्मोपदेशक एक साधुको ही बतलाते हैं श्रावकको निषेध करते हैं यह इनका अज्ञान समझना चाहिये अतः भगवती सूत्र शतक २ उ० ५ के मूलपाठमें जो श्रमण और माहनकी सेवा भक्ति करनेसे शास्त्र श्रवणसे लेकर मोक्ष पर्य्यन्त फल मिलना कहा है उसके अनुसार श्रावककी सेवा भक्ति भी मोक्ष फल देने वाली सिद्ध होती है इसीलिये श्रावककी सेवा भक्तिको एकान्त पाप कहना मिथ्या समझना चाहिये ।
( बोल ९ वां समाप्त )
( प्रेरक )
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २९६ के ऊपर लिखते हैं कि “अने किणही ठाटीका महणना अर्थ प्रथम तो साधु इज कियो । अने बीजो अर्थ अथवा श्रावक इम कियो छै । पिण मूल अर्थ तो श्रमण माहन नो साधु इज कियो"
। इसका क्या समाधान ?
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( प्ररूपक )
टीकाकारने पहले श्रमण और माहन शब्दका साधु ही अर्थ किया है और पीछे अथवा कह कर श्रावक अर्थ किया है यह बात मिथ्या है भगवती सूत्र शतक १ उद्देशा ७की टीकामें पहले ही टीकाकारने माहन शब्दका श्रावक अर्थ किया है। वह टीका यह है । “माहण” – त्ति माहनेत्येवमादिशति स्वयं स्थूलप्राणातिपातादिनिवृतत्वायः
समाहनः ।"
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