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सद्धर्ममण्डनम् ।
इस पाठमें श्रावकको धर्माख्यायी कहकर बतलाया है। धर्माख्यायो उसे कहते हैं जो धर्मका उपदेश देता है जैसे कि इस शब्दका अर्थ टीकाकारने इस प्रकार किया है।
धर्म माख्याति भव्यानां प्रतिपादयति इति धर्माख्यायी" अर्थात् भव्य लोगोंके समक्ष जो धर्मका प्रतिपादन करता है वह धर्माख्यायी कहा जाता है । इस प्रकार इस पाठसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि श्रावक भी धर्मका उपदेश करता है अतः परतीर्थी धर्मोपदेशककी तरह स्वतीथों धर्मोपदेशक भी दो तरहके होते हैं अत: भगवतीके उक्त पाठमें भी श्रमण शब्दका साधु और माहन शब्दका श्रावक अर्थ समझना चाहिये परन्तु दोनोंका एक साधु ही अर्थ नहीं। अतः माहन शब्दका साधु ही अर्थ करना हठवादियों का काम समझना चाहिये।
.. [बोल ८ वां समाप्त ]
(प्रेरक)
किसी श्रावकने धर्मोपदेश देकर यदि किसीको धार्मिक बनाया हो तो बतलाइये । (प्ररूपक)
__प्रथम तो अम्वडजीने ही अपने ५०० शिष्योंको उपदेश देकर बारह व्रत धारण कराये थे यह बात खुद भ्रमविध्वंसनकारने भी लिखी है। दूसरी बात यह है कि सुवुद्धि प्रधानने जित शत्रु राजाको धर्मोपदेश देकर बारह व्रतधारी श्रावक बनाया था। वह पाठ यह है
"तत्तेणं सुवुद्धी जितसत्तुस्स विचित्तं केवलिपन्नत्तं चाउजामं धम्म परिकहेइ । तमाइक्खति जहाजोवा वुझंति जाव पंच अणुव्वयाति । तत्तेणं जित सत्तु सुवुद्धिस्स अंतिए धम्मं सोचाणिसम्म हह सुवुद्धि अमचं एवं वयासो-सद्दहामिणं देवाणुप्पिया ! जिग्गंधे पावयणं ३ जाव से गहेयं तुम्भे वयह । तं इच्छामिणं तव अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावयं जाव उवसंपजित्ताणं विहरित्तए । अहा सुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिवंधं करेह । तएणं से जितसत्तू सुवुद्धिस्स अमच्चस्स अंतिए पंचाणुव्वयं जाव दुवालसविहं सावधम्म पडिवजह । तत्रोणं जित सत्तू समणोवासए अभिगयजीवा जीवे जाव पडिलभमाणे विहरई"
(ज्ञाता अध्ययन १२)
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