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सद्धर्ममण्डनम् ।
जो श्रावककी सेवा भक्ति और वन्दन नमस्कार करनेसे एकान्त पाप बतलाते हैं उन्हें उत्सूत्रवादी समझना चाहिये।
यदि कोई कहे कि भगवती सूत्रके इस पाठमें जो श्रमण और माहन शब्द आये हैं वे एक साधुके ही बोधक हैं माहन शब्दका श्रावक अर्थ नहीं है तो यह बात प्रथम तो उक्त टीकासे ही विरुद्ध है क्योंकि उक्त टीकामें माहन शब्दका स्पष्ट श्रावक अर्थ लिखा है। दूसरा अन्य तीर्थयोंके लिये भी श्रमण, माहन, शब्द आये हैं उनका अर्थ एक साधु ही नहीं किया है किन्तु श्रमण शब्दका अर्थ शाक्यादि और माहन शब्दका ब्राह्मण अर्थ किया है। इस प्रकार जैसे अन्य तीर्थियोंके विषयमें कहे हुप श्रमण और माहन शब्दका भिन्न भिन्न ही अर्थ है उसी तरह स्वती के लिये आये हुए श्रमण और माइन शब्दका भी भिन्न भिन्न ही अर्थ है पर एक साधु ही नहीं। जैसे कि सुयगडांग सूत्रके दूसरे श्रुतस्कन्धके दूसरे अध्ययनमें यह पाठ आया है
"तत्थणं जेते समणा माहना एव माइक्खंति जाव परुवे ति सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता हन्तव्या" अर्थ :
___ जो श्रमण माहन यह प्ररूपणा करते हैं कि सब प्राणियोंका वध करना धर्म है वे परमार्थ को नहीं जानते।
यहां अन्य तीर्थीके लिये श्रमण और माह्न शब्दका प्रयोग हुआ है। इनका अर्थ टीकाकारने भिन्न भिन्न ही किया है। अर्थात् श्रमण शब्दका शाक्यादि और माहन शब्दका ब्राह्मण अर्थ क्रिया है और इस बातको भ्रमविध्वंसनकारने भी स्वीकार किया है । जैसे कि भ्रम० पृ० २९४ पर लिखा है कि “तिम अन्य तीर्थीमें श्रमण शाक्यादि माहन ते ब्राह्मण, ए अन्यतीर्थीना श्रमण माहन कह्या" अतः जैसे इस पाठमें श्रमण माहन शब्दका एक साधु ही अर्थ न होकर भिन्न भिन्न अर्थ होता है उसी तरह भगवती सूत्र शतक २ उद्देशा ५ के पूर्व लिखित मूल पाठमें भी श्रमण शब्दका साधु और माहन शब्दका श्रावक अर्थ ही समझना चाहिये परन्तु एक साधु ही नहीं। अतएव टीकाकारने वहां टीकामें साफ लिख दिया है कि "श्रमणः साधुर्माहनः श्रावकः" अतः पर तीर्थी के विषयमें आये हुए श्रमण माहन शब्दका भिन्न भिन्न अर्थ मान कर भी स्वती के लिये आये हुए श्रमण माहन शब्दोंका भिन्न भिन्न अर्थ नहीं मानना एक मात्र हठवाद और टीका तथा मूल पाठसे भी विरुद्ध समझना चाहिये।
(बोल ७ वां समाप्त)
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