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सधर्ममण्डनम्।
करना धर्म नहीं होना चाहिये क्योंकि उस समय भी पुराने आचारके अनुसार ही वंदन नमस्कार करना कहा है परन्तु यदि केवल ज्ञान होने पर तीर्थकरको वन्दना नमस्कार करना पुराने रिवाजके अनुसार किये जाने पर भी पाप नहीं है किन्तु धर्म है तो उसी तरह जन्मते तीर्थंकर को पुराने रिवाजके अनुसार किया जाने बाला इन्द्रका वन्दन नमस्कार भी पाप नहीं है किंतु धर्म है ।
जैसे जन्मते समय इन्द्रादि देव भगवान्की जन्म महिमा करनेके लिये आते हैं उसी तरह केवल ज्ञान उत्पन्न होने पर भी केवल ज्ञानकी महिमा करने के लिये भगवान के पास वे आते हैं । शास्त्र के अन्दर जन्म महिमाके पाठका संकोच करके पांचों कल्याणोंका पाठ आया है अतः सभी पाठोंमें जन्म महिमाके पाठके समान ही "जिय मेयं" यह पाठ समझना चाहिये । तथा लोकान्तिक देवता जहां तीर्थकर को प्रतिवोध देनेके लिये आते हैं वहां भी पूर्व पाठका सङ्कोच करके "जिय मेयं" यह पाठ आया है। इस लिये जो लोग "जिय मेय" ऐसा पाठ आनेसे जन्मते तीर्थंकर को इन्द्र का वन्दन नमस्कार किया जाना पाप बतलाते हैं उनके हिसाबसे पांचो कल्याणोंके समय जो देवता भगवान को वन्दन नमस्कार करते हैं उन सभीको पाप ही कहना चाहिये तथा लोकान्तिक देवता पुराने रिवाजके अनुसार जो तीर्थकर देवको प्रतिवोध देते हैं वह भी पाप ही कहना चाहिये। जहां लोकान्तिक देवता तीर्थकरको प्रतिवोध देनेके लिये आये हैं वहांका पाठ यह है
"तरोणं तेसिं लोगतियाणं देवाणं पत्तेयं २ आसणाई चलंति । तहेवजाव अरहताणं निक्खममाणं संवोहणं करेत्तएत्ति तंगच्छामोणं अम्हेऽवि मल्लिस्स अरहतो संवोहणं करेमित्ति कटु एवं संपेहेंति २ उत्तर पुरच्छिमं दिसिभायं वेउब्धिय समुग्घाएणं समोहणंति २संखिजाई जोयणाई एवं जहा जंभगा जाव जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुम्भगस्स रणो भवणे जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छति २ अतलिक्खपडिवन्ना सखिंखिणिआई जाववत्थाति पव रपरिहिया करयल ताहि इठा एवं वयासी बुज्झाहि भगवं लोग नाहा पवत्तेहि धम्मतित्थं जीवाणं हिय सुख निस्सेयसकरं भविस्ततोत्ति का दोचपि तचं पि एवं वयंति २ मल्लिं अरह वंदति नर्मसंति २ जामेव दिसं पाउभुया तामेव दिसिं पड़ि गया।" . . .
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