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विनयाधिकारः।
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(प्ररूपक)
ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा ५ के अन्दर पांच कारणोंसे जीवको सुलभवोधी होना कहा है। वह पाठ यह है. . "पंचहिं ठाणेहिं जीवा सुलभ वोषियत्ताए कम्मं पकरेंति । तंजहा अरिहंताणं वन्नं पद्माणे जाव विवक्तववंभचेराणं देवाणं वन्नं वदमाणे"
.. (ठाणांग ठाणा ५ उद्देशा २)
अर्थ:
___ अर्थात् पांच कारणोसे जीव मुलभवोधी होनेके कर्म करते हैं। जैसे कि-अरि तो को यावत् परिपक्व ब्रह्मचर्या वाले देवों को वर्ण (प्रशंसा) बोलनेसे। ____यहां जिनके ब्रह्मचर्या और तप परिपक्क हो गये हैं ऐसे देवोंके गुणानुवाद करने से भी सुलभवोधी होना कहा है परन्तु वे देवता साधु नहीं हैं फिर उनकी प्रशंसा करनेसे जीव सुलभवोधी कर्म क्यों बांधता है ? इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधुसे इतर का विनय करना भी एकान्त पाप नहीं है किन्तु सम्यग्दृष्टि पुरुषके प्रति विनय करना सुलभ वोधी होनेका कारण है । इस प्रकार जब कि सम्यग्दृष्टि पुरुषके गुणानुवाद करनेसे जीव सुलभवोधी हो जाता है तब फिर उसको सेवा भक्ति और वन्दन नमस्कार आदि शुषा विनय करनेसे पाप कैसे हो सकता है ? उससे तो और अधिक धर्म ही होगा।
जिस समय तीर्थकर जन्मधारण करते हैं उस समय वह साधु नहीं होते तथापि इन्द्रादि देवता उनको अपनेसे अधिक सम्यक्त्व आदि गुणोंसे युक्त जान कर भक्तिपूर्वक वन्दना और स्तुति करते हैं परन्तु भ्रमविध्वंसनकारके हिसावसे यह वन्दना सावय ठहरती है क्योंकि वह साधुसे इतरको की जाती है लेकिन शास्त्र ऐसा नहीं कहता वह तो इस वन्दनाको कल्याणका कारण बतलाता है तथा दिक्कुमारियोंने भी अपनेसे सम्यक्त्व आदि गुणोंमें श्रेष्ठ जान कर जन्मते ती कर और उनकी माताको वन्दना नमस्कार और गुणग्राम किया है। इस दाखलेसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अपनेसे सम्यकत्व आदि गुणोंमें श्रेष्ठ पुरुषको बन्दन नमस्कार करना धर्मका ही कारण होता है भ्रमविध्वंसनकार के कथनानुसार एकान्त पाप नहीं होता अन्यथा इन्द्रादि देवता जन्मते तीर्थ कर की, और दिक्क मारी गण तीर्थङ्कर की वन्दना और स्तुति क्यों करते हैं ? अतः साधुसे इतर अपनेसे श्रेष्ठ सम्यग्दृष्टि पुरुषके प्रति शुश्रूषा विनय करनेमें पाप बतलाना अज्ञानियों का कार्य समझना चाहिये
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