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मण्डनम् ।
सिद्ध, और भगवान् महावीर स्वामीको नमस्कार तो मोक्षार्थ किया हो और अम्डजी को नमस्कार मोक्षार्थ नहीं किया हो इसमें कोई प्रमाण नहीं है । उस पाठ में साफ साफ लिखा है कि जिस अम्वडजी से हम लोगोंने यावज्जीवन के लिये वाहर तको धारण किया है उनको नमस्कार है । इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अम्वडजी के शिष्यों ने arasite वार व्रत धारण करानेका उपकार मान कर ही वन्दन नमस्कार किया है पर दूसरे किसी कारण से नहीं । अतः इस दाखले से वाहर व्रत धारण कराने वाला अपने से श्रेष्ठ श्रावकको वन्दन नमस्कार करना धर्मका कारण सिद्ध होता है सावध सिद्ध नहीं होता वह पाठ यह है ।
"अण्णमण्णस्स अंतिए एयम पडिसुणंति । अण्णमणस्स अन्ति पडिणित्ता तिदण्डएव जाव एगंते एडेइ २ गंगं महाणह ओगार्हेति रत्ता वालुआ संथारए संघरंति । वालुया संधारयं दुरुहिं-तिवारता पुरस्थाभिमुद्दा संपलियंक निसन्ना करयल जाव कट्टु एवं वयासी नमोऽणं अरह ताणं जाव संपत्ताणं नमोऽणं अम्बहस्स परिव्वास्स अम्' धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स पुब्विणं अम्हे अम्aste परिव्वायगस्स अन्तिए धूलग पाणाइवाए पच्चकखाए जाव जीवाए लगे मुसावाए थ लगे अदिष्णादाणे पञ्चकखाए जावज्जीवाए सच्चे मेहुणे पञ्चखाए जाव जीवाए थ लगे परिग्गहे पचखाए". ( ७ उवाई सूत्र प्रश्न १३ )
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अर्थ:अम्वडजीके शिष्योंने परस्पर पूर्वोक्त प्रकारकी प्रतिज्ञा करके सन्यासी वेषोचितसम्पूर्ण त्रिदण्ड आदिको एकांतस्थान में रख कर गङ्गा नदीके तटपर जाकर वहां बालुकामय संधारा बनाया । उस पर स्थित होकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके प कासन जमाकर हाथ जोड़ कहने लगे कि- नमस्कार हो अरिहंतोको यावत् मोक्षमें पहुंचे हुए सिद्धोंको तथा नमस्कार हो भगवान् महावीर स्वामीको जो मोक्षमें जाने की इच्छा रखते हैं । हमारे धर्माचा धर्मोपदेशक डोको नमस्कार हो जिनसे हमने स्थूलहिंसा, स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्ता दान, सब प्रकारका मैथुम और स्थूल परिग्रहको यावज्जीवनके लिये परित्याग किया है ।
यहां अrasith शिष्योंने संथारा ग्रहण करते समय अरिहंत, सिद्ध, और भगवान महावीर स्वामीके समान ही अम्बडजीको भी नमस्कार किया है। यदि अपने से श्रेष्ठ श्रावकको नमस्कार करना पाप होता तो वे अम्बडजीको नमस्कार क्यों करते ?
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