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विनयाधिकारः ।
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आसनानुप्रदान कहलाता है। इसी तरह आते हुए गौरव योग्य पुरुषके सम्मुख जाना और बैठे हुए की सेवा करना, और जाते हुएके पीछे जाना ये सब शुश्रूषा विनये कहलाते हैं । यह टीकाका अर्थ है :
दर्शन विनयके अधिकारी सम्यग्दृष्टि, साधु और श्रावक सभी लोग होते हैं । सम्यष्टि अपने से अधिक गुण वाले सम्यग्दृष्टिकी और श्रावक अपनेसे अधिक गुण वाले श्रावककी, तथा ये सभी लोग सम्यग्दृष्टि साधुकी तथा कनिष्ठ साधु अपनेसे अधिक गुण वाले साधुकी जो शुश्रूषा करते हैं वह उनका दर्शन विनय समझा जाता है । यह दर्शन विनय निर्जराके भेदमें गिना गया है । इस लिये दर्शन विनय करनां निर्जराका हेतु समझना चाहिये |
( बोल १ समाप्त )
( प्रेरक )
अपने से अधिक गुण वाले श्रावकका दर्शन विनय करना श्रावकके लिये निर्जरा का हेतु आप बतलाते हैं पर किसी श्रावकने किसी श्रावकका दर्शन विनय किया हो ऐसा उदाहरण कोई मूलपाठसे बतलाइये ।
(प्ररूपक )
भगवती सूत्र शतक ११ उद्देशा १२ के मूल पाठ श्रावकोंका श्रावकसे विनय करने का स्पष्ट कथन है। वह पाठ यह है
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"लएणं ते समणो वासंगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिआओ एम सोचा णिसम्म समणं भगर्व महावीरं वदति - मंसंति वन्दित्ता जेणेव इसिभद्दपुत्ते समणोवासए तेणेव उयोगच्छति उवागच्छत्ता इसिभहपुत्तं समणोवासयं बंद ति णमंस्संति मट्ठ विणणं भुज्जो भुज्जो खामेंति".
( भ० श० - ११ उ०१२ )
अर्थ :
इसके अनन्तर वे श्रावक श्रमण भगवान् महावीर स्वामीसे इस बातको सुन कर श्रम* भवान् महावीर स्वामीको वन्दना नमस्कार करके ऋषिभद्र पुत्र श्रावकके पास गये वहां जाकर ऋषभद्र पुत्र श्रावकको वन्दना नमस्कार करके उनकी सच्ची बात नहीं मानने रूप अपराधके लिये विनयके साथ बार बार क्षमा प्रार्थमा की ।
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