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अथ विनयाधिकारः।
(प्रेरक)....
विनय किसे कहते हैं। और उसके भेद कितने होते हैं। (प्ररूपक)
"विनीयते कर्मानेनेति विनयः । गुरुशुश्रूषा विनयः नीचैत्यनुत्सेके"
अर्थात् जिससे कर्मवन्ध निवृत्त होता है उसे विनय कहते हैं। तथा गुरुजन की सेवा शुश्रूषा करनेका नाम विनय है । एवं नम्रताको भी विनय कहते हैं।
यह सात प्रकार का होता है। इस विषयमें भगवती आदि सूत्रोंमें यह पाठ मिलता है।
"सत्तविहे विणए पण्णत्ते तंजहा
णोण विणए, दसण विणए, चारित्त विणए, मण विणए, बत्ति विणए, काय विणए, लोगोक्यार विणए"
(ठाणाङ्ग ठाणा ७-भगवती शतक १५ उ०७) ... ___ अर्थात् विनय सात प्रकारके होते हैं।
. (१) ज्ञान विनय, (२) दर्शन विनय, (३) चारित्र विनय, (७) मनो विनय, (५) वचन विनय, (६) काय विनय, (७) लोकोपचार विनय । . .
इनमें दर्शन विनयके विषयमें टीकाकारने यह लिखा है कि
"दर्शनं सम्यक्त्वं तदेव विनयो दर्शन विनयः । दर्शनस्यवा तदव्यतिरेकादर्शन गुणाधिकानां शुश्रूषाऽनासातनारूपो क्नियो दर्शन विनयः । उक्तच-"सुस्सुसमा अणासायणा य विणओउ दसणे दुविहो दसण गुणाहिएसु कलह सुस्सुसणा विणओ। सकारा ब्भुट्टाणे सम्माणासण अभिग्गहो सहय। आसगमणुप्पयाणं कीकम्म अंजलि गहोम । तस्सगु गच्छगया ठियस्सतह पज्जुवासणा भणिया । गच्छंताणुव्वयणं एसो सुस्सुणा विणओ”
अर्थात दर्शन नाम सम्यक्त्वका है और तद्र प जो विनय है उसे दर्शन विनय कहते हैं। अथवा गुण और गुणीके अभेदसे दर्शनरूप अधिक गुण वाले पुरुषकी शुश्रूषा कस्वा, तथा उनको असातना नहीं देना दर्शन विनय कहलाता है। कहा भी है
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