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सद्धर्ममण्डनम् ।
प्रतिष्ठा आदि करे तो उसको पाप नहीं कहा है। उसी तरह आचारांग सूत्रके इस पाठ में भी गृहस्थके द्वारा अपने फोडे आदिको छेदन करानेकी इच्छा करना साधुको वर्जित की गयी है परन्तु गृहस्थको साधुके फोडे आदिका छेदन करना वर्जित नहीं है। इस लिये धम वुद्धिसे गृहस्थ यदि साधुका व्रणको काटे तो उसको एकान्त पाप नहीं हो सकता क्योंकि जैसे साधु गृहस्थके द्वारा अपनी पूजा प्रतिष्ठा कराने की इच्छा नहीं करता पर गृहस्थ साधुकी पूजा प्रतिष्ठा करता है और उस गृहस्थको उस कार्य से पाप नहीं होता धर्म होता है उसी तरह साधु, गृहस्थसे अपने फोडे आदिका छेदन कराना नहीं चाहता यदि चाहे तो पाप होगा परन्तु गृहस्थ यदि धर्म बुद्धिसे साधुका व्रण छेदन करे तो उसको एकान्त पाप नहीं हो सकता। ___ देखिये आचारांग सूत्रका वह पाठ यह है
"सिया से परो कार्यसि वर्ण अण्णपरेण सत्य जाएणं आच्छिदेवया विच्छिदेजवा णो तं सातिए णो तं णियमे"
(आचारांग म० १५ श्रु० २) अर्थ:___अर्थात् कदाचित् साधुके शरीरमें व्रण उत्पन्न हुआ देख कर गृहस्थ यदि उसका छेदय करे तो साधु उसकी इच्छा न करे। और छेदन न करावे ।
यहां साधुको गृहस्थसे फोडे आदिके छेदन करानेकी इच्छा करना वर्जित की गई है। परन्तु गृहस्थको साधुका व्रण छेदन करना वर्जित नहीं किया है इसलिये इस पाठ का नाम लेकर साधुका अर्श छेदन करने वाले गृहस्थको एकांत रूपसे पापी कहना मिथ्या समझना चाहिये।
(बोल १२ वां समाप्त)
( इति वैयावृत्य प्रकरणं समाप्तम् )
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