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सद्धर्ममण्डनम् । णवा तिक्खेण सत्थजाएणवा आच्छि देई विच्छिदेइ आच्छिदंतं विच्छिदंतंवा साइज्जई"
(निशीथ १५ उ० बोल ३१) अथ:
जो कोई साधु अन्य यूधिकसे अथवा गृहस्थसे अपने शरीरके गंडमालादिक, मेह, फोड़ा, अर्श भगन्दर, इनको किसी तीक्ष्ण शस्त्र जातिसे छेदावे तथा विशेष रूपसे छैदावे अथवा इनका छेदन कराने वाले साधुको अनुमोदना करे तो उसको प्रायश्चित्त आता है।
यहां निशीथ सूत्रके मूल पाठमें अन्य यूथिक और गृहस्थके द्वारा अर्श छेदन कराने वाले और उसका अनुमोदन करने वाले साधुको प्रायश्चित्त आना कहा है इस लिये कोई साधु यदि गृहस्थसे अर्शका छेदन करावे तथा छेदन कराते हुए साधुको भला जाने तो उसको प्रायश्चित्त आता है परन्तु धर्म बुद्धिसे उक्त साधुका अर्श छेदन करने वाले गृहस्थको प्रायश्चित्त आना इस पाठमें नहीं कहा है क्योंकि भगवती सूत्र शतक १६ उद्देशा ३ के मूल पाठमें और उसकी टोकामें जब कि धर्म बुद्धिसे साधुका अर्श काटने वाले गृहस्थको शुभ क्रिया कही है तब उसके विरुद्ध यहां उक्त गृहस्थको पाप कैसे कहा जा सकता है । यद्यपि भ्रम विध्वंसनकार इस विषयमें यह तर्क करते हैं कि “साधुका अर्श काटने वाले गृहस्थका यदि पुण्यकी क्रिया होती है तो फिर उसका अनुमोदन करने से साधुको प्रायश्चित्त कैसे आता है" परन्तु उनका यह तर्क भी अज्ञान सूचक है। उक्त निशीथके मूलपाठमें अर्श छेदन करने वाले गृहस्थके कार्यका अनुमोदन करनेसे साधुको प्रायश्चित्त आना नहीं कहा है किन्तु गृहस्थके द्वारा अर्श छेदन कराते हुए साधुके कार्यका अनुमोदन करनेसे प्रायश्चित्त आना कहा है। इसलिये अनुमोदनका नाम लेकर धर्म बुद्धिसे साधु का अर्श छेदन करने वाले गृहस्थको पापकी स्थापना करना मिथ्या है।
___यदि कोई कहे "कि गृहस्थसे अर्श कटाने वाले साधुको यदि पाप लगता है तो साधुका अर्श काटने वाले गृहस्थको पुण्य कैसे होगा ? तो इसका उत्तर यह है कि जैसे गृहस्थके द्वारा सत्कार सम्मान और पूजा प्रतिष्ठा की इच्छा रखना उत्तराध्ययन सूत्रके अन्दर साधु को वर्जित की गयी है परन्तु श्रावक यदि साधुकी पूजा प्रतिष्ठा बन्दना सत्कार करे तो उसका निषेध नहीं है किंतु वह धर्म का कार्य है। उसी तरह साधु यदि गृहस्थसे अर्शछेदन करावे अथवा कराते हुए साधुको अच्छा जाने तो उसको प्रायश्चित्त आता है परन्तु धर्म बुद्धिसे साधुका अर्श काटने वाले गृहस्थ को पायश्चित्त नहीं माता।
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