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वैयावृत्याधिकारः।
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उत्तराध्ययन सूत्रकी मूलगाथा यह है"नोसकिय मिच्छई नपूअं नोविय चंदणगं कुओ पसंस"
(उत्तरा० म० १५) अर्थ :
"साधु अपनी पूजा और सत्कारकी इच्छा नहीं करे तथा चन्दन और प्रशंसा की चाहना भी न करे।"
परन्तु श्रावक लोग साधुकी पूजा सत्कार वन्दन और प्रशंसा करते हैं और उक्त कार्यों से श्रावकोंको पाप नहीं होता किन्तु धर्म होता है। उसी तरह साधु यदि किसी गृहस्थसे अर्श कटवाना चाहें तो उसको पाप हो सकता है परन्तु अर्श काटनेवाले गृहस्थ को पाप नहीं हो सकता है बल्कि धर्म बुद्धिसे काटने पर धर्म ही होता है। तथापि साधु, गृहस्थसे अर्श कटवाना नहीं चाहते, यह देख कर साधुके अर्श काटनेसे गृहस्थको पाप होना यदि कोई हठी कहे तो फिर साधुकी वन्दना पूजा सत्कार सम्मान करनेवाले श्रावक को भी उसके हिसाबसे पाप ही होना चाहिये क्योंकि साधु गृहस्थसे पूजा प्रतिष्ठा वन्दना नमस्कार आदिकी भी चाहना नहीं रखता। अतः निशीथ सूत्रका मनमाना तात्पर्य बतला कर धर्म बुद्धिसे साधुका अर्श काटने वाले वैद्य को पाप होने की स्थापना करना एकमात्र अज्ञान का परिणाम समझना चाहिये ।
[बोल ११ वां समाप्त ]
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रम० पृ० २७० के ऊपर आचारांग सूत्र अध्ययन १३ श्रुत० २ रे का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं कि
"मथ ईहां कह्यो जे साधुरे व्रण ते गुमडो फुणसी आदिक तेहने कोई पर अनेरो गृहस्थ शस्त्र करी छेदे तो तेहने मनकरी अनुमोदे नहीं। अने वचन करी तथा काया ई करी करावे नहीं। जे कार्य साधु मन करी अनुमोदना ई न करे ते कार्य करणवाला ने धर्म किम हुवे । इत्यादि।
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
___जैसे उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन १५ की गाथामें अपनी पूजा प्रतिष्ठा, सत्कार सम्मान की चाहना करना साधुके लिये वर्जित की है परन्तु गृहस्थ यदि साधुकी पूजा
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