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दर्शन विनयके दो भेद होते हैं। शुश्रूषा विनय, और असातना विनय । दर्शनरूप अधिक गुण वाले पुरुषों की शुश्रूषा विनय करना चाहिये । शुश्रूषा विनय ये हैं
सद्धममण्डनम् ।
सत्कार करना, सम्मुख खडा होना, सम्मान करना, सम्मुख जाना, व्यासन देना, वन्दन करना, हाथ जोड़ना, आते हुए गुरुजनके सामने जाना, बैठे हुए की सेवा करना और जाते हुए पोछे जाना । यह शुश्रूषा विनय कहलाता है ।
इसी तरह भगवती शतक १४ उद्देशा ३ के मूलपाठमें शुश्रूषा विनयके भेद बतलाये हैं वह पाठ यह है ।
"सक्कारेइवा सम्माणेइवा कोकम्मेइवा अन्भुट्ठाणेइवा अंजलिपग्गहेहवा । आसणाभिग्गहेहवा असणाणुप्पदाणेइवा इं तस्स पज्जुगच्छणया ठियस्स पज्जुवा सणया गच्छंतस्स पडिसंहाणत्ता" ( भ० श० १४ उ० ३ )
( इस पाठकी टीका )
कारो विनयाषु वंदनादिना आदर करणम् प्रवर वस्त्रादि दानश्व “सकारो पवरवत्थादिहिं” इति वचनात । सम्मानस्तथाविधप्रतिपत्तिकरणम् [कृतिकर्म वंदनं कार्य्यं करणवच । अभ्युत्थानं गौरवाह दर्शने विष्टरत्यागः । अंजलिप्रप्रहः अंजलि करणम् । आसनाभिग्रहः तिष्ठव एव गौरव्यस्यासनानयनपूर्वक मुपविशतेति भणनम् । गौरव्यमाश्रित्यासनस्य स्थानांतर संचारणम् । आगच्छतो गौरव्यस्याभिमुखगमनं तिष्ठतो गौरव्यस्यसेवेति । गच्छतोऽनुगमनमिति ।
अर्थः
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विनय करने योग्य पुरुषका वंदन आदिके द्वारा आदर करना और उसको उत्तमोत्तम वस्त्रादिका प्रदान करना सत्कार विनय कहलाता है ।
श्रेष्ठ पुरुषको स्वरूपानुरूप गौरव देना सम्मान विनय है ।
श्रेष्ठ पुरुष को वन्दन करना और उसका कार्य्य करना कृति कर्म कहलाता है । गौरव के योग्य पुरुष को देख कर आसन छोड़ खड़ा हो जाना अभ्युत्थान विनय है ।
गौरव के योग्य पुरुष को हाथ जोड़ना "अंजलि प्रह" कहलाता है ।
खड़े हुए गौरव योग्य पुरुषको आसन देकर बैठनेके लिये कहना आसनाभिप्रह कहलाता है। गौरव योग्य पुरुषके आसनको उसकी इच्छानुसार दूसरी जगह रखना
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