________________
वैयावृत्याधिकारः ।
३७९
सांधुकी बांह पकड़कर धर्म बुद्धिसे बाहर करने वाले दयालु गृहस्थको तथा साधुकीं गले की फांसी काटने वाले धार्मिक दयालु पुरुषको पाप कैसे हो सकता है यह बुद्धिमानोंको सोचना चाहिये । यदि इन काय्यों में पाप होता तो फिर धर्म बुद्धिसे साधुका अर्श काटने वाले वैद्यको भगवती सूत्रके उक्त पाठमें तथा उसकी टीकामें शुभ क्रिया (पुण्य a) होना क्यों कहा जाता ? अतः भगवती के पूर्वोक्त पाठ और उसकी टीकासे स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधुके गलेकी फांसी काटना तथा आगमें जलते हुए साधुकी बांह पकड़कर उसको बाहर निकालना, मरणान्त कष्टमें पड़े हुए साधुकी शारीरिक सहायता प्राण रक्षा करना, धार्मिक गृहस्थोंके लिये पापका काय्य नहीं है किन्तु धर्मका कार्य हैं। अंतः भीषणजीने, सुभद्रा सतीको जिन कल्पी मुनिकी आंखसे तिनका निकालने से ओ पापिमी कहा है तथा जीतमलजीने जो साधुके गलेकी फांसी काटने वाले और आगमें जलते हुए साधुको बाहर निकालने वाले दयालु गृहस्थोंको पाप कर्म करने वाला बतलायां है यह इन लोगों की प्ररूपणा नितान्त शास्त्र विरुद्ध समझनी चाहिये ।
( बोल १० वां )
( प्रेरक )
आपने भगवती सूत्रके मूलपाठ और उसकी टीकासे यह सिद्ध कर दिया कि जो वैद्य साधुकी नासिका में लटके हुए अर्शको धर्म बुद्धिसे काटता है उसको शुभ क्रिया लगती है परन्तु भ्रम विध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २७० के ऊपर निशीथ सूत्र उद्देशा १५ बोल ३१ का मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते है :
“अथ इहां कह्यो साधु अन्य तीर्थी तथा गृहस्थ पासे अर्श छेदावे तथा कोई अनेरा साधुरी अर्श छेदताने अनुमोदे तो मासिक प्रायश्चित्त आवे । अर्श छेदव्या पुण्यनी क्रिया होवे तो ए अर्श छेदन वालाने अनुमोदे तो दण्ड क्यूं कह्यो ? पुण्यरी करणी को निरवद्य छै । निरवद्य करणी अनुमोद्यां तो दण्ड आवे नहीं । दण्ड तो पापरी करणी अनुमोद्यां थीज आवे" इत्यादि । (भ्र० पृ० २७० )
इसका क्या समाधान ?
(प्ररूपक)
निशीथ सूत्रको उक्त पाठ देकर इसका समाधान किया जाता है। वह पाठ
यह है
"जे भिक्खू अण्ण उत्थिएणवा गारत्थिएणवा अप्पाणो कायंसि गड बा पलियंवा अरियंवा असियंवा भगंदलंवा अण्णयरे
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com