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क्योंकि वे सङ्घके अन्दर मौजूद हैं परन्तु लिङ्गसे साधर्मिक नहीं होते क्योंकि वे रजोहरणादि लिङ्गोंसे युक्त नहीं होते ।
यहां टीकाकारने श्रावकको प्रवचनके द्वारा साधर्मिक कह कर उसको साधर्मिकों की चौभङ्गीके दूसरे भङ्गमें रक्खा है । इसलिये श्रावक भी श्रावकका साधर्मिक होता है यह बात निर्विवाद सिद्ध है । दश प्रकारके व्यावचोंमें उवाई सूत्र के अन्दर साधर्मिक का व्यावच करना भी कहा गया है। इसलिये श्रावक श्रावकका व्यावच किया जाना भी साधर्मिक व्यावच होने से धर्म का ही हेतु है । उसे पाप कहना अज्ञानियोंका का है ।
उक्त दशविध व्यावचोंमें सङ्घका व्यावच भी कहा गया है और सङ्घ नाम है साधु साध्वी श्रावक और श्राविकाओं के समूह का । इसलिये सङ्घ के अन्तर्भूत होनेसे साधु की तरह श्रावक का व्यावच भी सङ्घके व्यावच में गिना जाता है । इस लिये श्रावक से श्रावक का व्यावच किया जाना भी देश सङ्घका व्यावच है । अत: वह धर्म है परन्तु पाप नहीं है ।
यदि कोई कहे कि साधुओं की १२ प्रकार की तपस्याओंके भेदमें व्यावच कहा गया है । इसलिये वाई सूत्रोक्त दश विध व्यावच साधुओं का ही है परन्तु श्रावक का नहीं तो उसे कहना चाहिये कि श्रावकोंके लिये तपका विधान कहीं अन्यत्र नहीं करके साधुओंके साथ ही किया गया है। कारण यह है कि तपके विषयमें साधु और श्रावकों का कोई अन्तर नहीं है । इस लिये जैसे वारह प्रकार के तप साधुओं के समान श्रावकों के भी हैं उसी तरह ये दशविध व्यावच साधुओं की तरह श्रावकों के भी हैं ।
इस विषय में भ्रमविध्वंसनकारका भी कोई मतभेद नहीं हो सकता क्योंकि उनके गुरु भीषणजीने लिखा है
“सांधारे वारे भेद तपस्या करतां जहां जहां निरवद्य योग रूधायजी । तहां तहां संवर होय तपस्यारे लारे, तिणसु पुण्य लागता मिट जायजी । ४७ गाथा
इण तप मांहिलो तप श्रावक करतां । कठे अशुभ योग रूधायजी जब व्रत संवर हुवे तपस्यारे लारे लागता पाप मिट जायजी" ४८ गाथा
( नवसद्भाव पदार्थ निर्णय )
इन पथोंमें भीषणजीने १२ प्रकारकी तपस्याएं साधुकी तरह श्रावकों की भी मानी हैं । इस लिये इन तपस्याओं में आया हुआ व्यावच श्रावकों का भी सिद्ध होता है । अतः पूर्वोक्त दश विध व्यावच को श्रावकों के लिये नहीं स्वीकार करना हठवाद समझना चाहिये ।
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